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[८७] धारण करते हैं तब भी उत्सर्गलिंग ही रहता है। इस गाथा की संस्कृत टीका में इसी भाव को यों स्पष्ट किया गया है। यथा
उत्सर्गः सकलपरिग्रहत्यागः तत्र भवमौत्सर्गिक तञ्च तलिंगं च तत्र कृतः स्थितः तस्थयतेभक्तं त्यक्तमिच्छोस्तदेव प्राग्ग्रहीतमेव भवेत् ॥
अर्थात्-सकल परिग्रह त्याग रूप जो उत्सर्गलिंग मुनि के होता है। भक्त-प्रत्याख्यान सन्यास के समय में भी मुनि के वही उत्सर्ग लिंग रहता है।
परन्तु परिग्रह सहित लिंग को अपवादलिंग कहते हैं, अपवादलिंग श्रावक-श्राविकाओं के होता है। भक्त-प्रत्याख्यान सन्यास को यदि श्रावक-श्राविकाएं धारण करें तो दोष रहित अवस्था में वे भी उत्सर्गलिंग धारण कर सकती है। अर्थात सन्यास के समय वे भी नग्न होकर उत्सर्ग लिंग धारण कर सकते हैं। यदि गृहस्थ नम्रता के लिये अयोग्य हो तो वह उत्सर्गलिंग धारण नहीं कर सकता है। किंतु अपवादलिंग सवस्त्रलिंग ही धारण करेगा।
प्रो० सा० जिस ७६ वीं गाथा का प्रमाण देकर मुनि को सवस्त्र सिद्ध करना चाहते हैं वह सवत्रता मुनि के लिये नहीं किंतु गृहस्थ के लिये ही है। यह बात उसी गाथा से स्पष्ट हो चुकी है और भी स्पष्टता के लिये हम नीचे लिखी गाथा देते हैं