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________________ १५ सो गाथा पूर्ण करी छे. चोथा कर्मप्रन्थमां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए भेद-प्रभेदो साथै छ भाबोनुं स्वरूप अने भेद-प्रभेदना वर्णन साथै सङ्ख्यात, असङ्ख्यात अने अनन्त ए प्रण कानी माओ स्वरूप वर्णव्युं छे. अने पांचमा कर्मग्रन्थमां उद्धार, अद्धा अने क्षेत्र ए ऋण प्रकारना पल्योपमोनुं स्वरूप, द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव ए चार प्रकारना सूक्ष्म अने बादर पुगलपरावर्तोनुं स्वरूप तेम ज उपशमश्रेणि अने क्षपकश्रेणिनुं स्वरूप विगेरे अनेक नवीन विषयो उमेर्या छे. आ रीते प्राचीन कर्मग्रन्थो करतां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत नव्य कर्मग्रन्थोमां खास विशेषता ए रहेली छे के प्रस्तुत प्रकाशित कराता कर्मग्रन्थमां प्राचीन कर्ममन्थोना प्रत्येक विषयनो समावेश होवा छतां तेनुं प्रमाण अति नानुं छे अने ते साथै एमां नवा अनेक विषयो संघरवामां आव्या छे. कर्मग्रन्थो -- -उपर अमे जणावी आव्या ते मुजब प्राचीन अने नवीन एम वे प्रकारना कर्मप्रन्धो सिवाय विक्रमनी पंदरमी शताब्दीमां थयेल आगमिक आचार्य श्रीजयतिलकसूरिए संस्कृत कर्मग्रन्थोनी पण रचना करी छे. तेम छतां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना नव्य कर्मग्रन्थोनुं ज जनसाधारणमां गौरव अने प्रायता बधी पडयां छे, अने आज सुधी जनतामा ए ज अव्यवछिन्न रीते प्रचार पामी रह्या छे. आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना कर्मग्रन्थो एटले सुधी काम कयुं छे के अत्यारे थोडा एक गण्या गांठ्या विद्वानो सिवाय भाग्ये ज कोई जाणतुं हशे के – आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना कर्मप्रन्थो सिवाय बीजा प्राचीन कर्मग्रन्थो पण छे जेने आधारे आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्ममन्थोनी रचना करी छे. नव्य कर्मग्रन्थोनी टीका-आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना नव्य पांचे कर्मप्रन्थो उपर स्वोपज़ टीका रची हती तेम छतां श्रीजा कर्मग्रन्थनी टीका आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना समय पछी तरत ज गमे ते कारणे नाश पामी गई होवाथी ते पछीना आचार्योंने मळी शकी नथी; एटले तेनी पूरवणी करवा माटे कोई विद्वान् आचार्यश्रीए नवीन अवचूरिरूप टीको रचीछे जेमनुं नाम टीकामां निर्दिष्ट नथी. अमारा प्रस्तुत विभागमां नव्य पांच कर्मग्रंथ पैकीना पहेला चार कर्मग्रंथो सटीक, अर्थात् पहेलो वीजो अने चोथो स्वोपज्ञ टीका साथै अने त्रीजो उपरोक्त अन्यआचार्यकृत अवचूरी साधे, प्रसिद्ध करवामां आवे छे. टीकानी रचनाशैली -- आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिनी टीका रचवानी शैली एवी मनोरंजक छे के - मूळ गाथाना कोई पण पद के वाक्यनुं विवेचन रही जवा पाम्युं नथी, एट ज नहि पण जे पदार्थने विस्तारपूर्वक समजाववानी जरूरत होय तेनुं ते प्रमाणे निरूपण करवामां आव्युं छे. आ सिवाय प्रस्तुत टीकामां एक ए पण विशेषता जोवामां आवे छे के १ जुभ शतक गाथा २५ मीनुं अवतरण - " मार्गणास्थानकान्याश्रित्य पुनः स्वोपज्ञबन्ध स्वामित्वटीकार्या विस्तरेण निरूपितस्तत अवधारणीय इति ।" २ जुओ ए टीकार्नु अन्तिम पद्य "wagrata टीकाsभूत् परं क्वापि न साऽऽप्यते । स्थानस्याशुन्यता हेतोरतो ऽ लेख्यवचूरिका ||
SR No.010087
Book TitleChatvara Karmgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChaturvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1934
Total Pages289
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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