SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ জন। परपीड़न में आनन्द माननेवाले होते वहाँ वे जान-बूझकर जाते थे। ऐसे लोग उन्हें मारते, भूखा रखते, उनके पीछे कुत्ते छोड़ देते, रास्ते में अनुचित मसखरी करते, उनके समक्ष बीमत्स आचरण करले और उनकी साधना में विघ्न डालते। कितनी ही जगहों पर उन्हें ठंड, ताप, झंझा, वर्षा वगैरह नैसर्गिक कष्ट और सर्प, व्याघ्र धगैरह हिंस्र प्राणियों द्वारा उपस्थित संकट भोगने पड़े। जिन बारह वर्षों का विवरण उपसर्ग और परीषहों के करुणाजनक वर्णनोंसे भरा हुआ है। जिस धैर्य और क्षमावृत्ति से उन्होंने ये सब सहे, उसे स्मरण कर स्वाभाविक रूप से हमारा हृदय उनके प्रति आदर से खिंच जाता है। उनके जीवनचरित्र से मालूम होता है कि सर्प जैसे वैर को न भूलनेवाले प्राणी भी इनकी अहिंसा के प्रभाव में बाकर अपना बैर भाव छोड़ देते। लेकिन मनुष्य तो सर्प और व्याघ्र से भी ज्यादा परपीड़क सिद्ध होता। ५. कुछ प्रसंग: एक बार महावीर मोराक नामक गांव के निकट आ पहुंचे। वहां उनके पिता के एक मित्र कुलपति का आश्रम था। उन्होंने बाश्रम में एक कुटी बांधकर महावीर से चातुर्मास साधना करने की विनती की । कुटी घास की बनाई हुई थी। वर्षा का प्रारम्भ अभी नहीं हुआ था। एक दिन कुछ गायें आकर इनकी तथा दूसरं तापसों की कुटियों की घास खाने लगीं। दूसरे तापसों ने तो लकड़ी से गायों को हकाल दिया, परन्तु महावीर अपने ध्यान में ही स्थिर बैठे रहे । यह निस्पृहता दूसरे तापस न सह सके और
SR No.010086
Book TitleBuddha aur Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy