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________________ '' ७२ बुद्ध प्राप्ति के लिए आवश्यक है या नहीं इस विचार को एक तरफ रखे तो भी यह कहा जा सकता है कि उसके बिना मनुष्य की भक्ति की भावना का पूर्ण विकास होकर उसके बाद की भावना में प्रवेश नहीं हो सकता | ६. वर्ण की समानता : में वर्ण व्यवस्था होना एक बात है और वर्ण में ऊँचनीचपन का अभिमान होना दूसरी बात है। वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध किसी संत ने आपत्ति नहीं की। विद्या की, शस्त्र की, अर्थ की या कला की उपासना करनेवाले मनुष्यों के समाज में भिन्न-भिन्न कर्म हों इसमें किसी को आपत्ति करना भी नहीं है। लेकिन उन कर्मों को लेकर जब ऊँच-नीच के भेद डाल वर्ण का अभिमान किया जाता है तब उन के विरुद्ध संत कटाक्ष करते ही हैं। उस अभिमान के विरुद्ध पुकार करनेवाले केवल बुद्ध ही नहीं हैं। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, वल्लभाचार्य, चैतन्यदेव, नानक, कबीर, नरसीह मेहता, सहजानंद स्वामी आदि कोई भी संत वर्ण के अभिमान पर प्रहार किए बिना नहीं रहे । इनमें से बहुतों ने अपने लिए तो चालू रुढ़ियों के बन्धन को भी काट डाला है । सब ने इन रूढ़ियों को तोड़ने का आग्रह नहीं किया है। इसके दो कारण हो सकते हैं: एक इस प्रेम-भावना के बल से स्वयम् को इन नियमों में रहना अशक्य लगा। इस भावना के विकास के बिना उन रिवाजों का भंग जरा भी बाभदायक नहीं, तथा दूसरे, रूढ़ियों के संस्कार इतने बलवान होते हैं कि वे सहज ही जीते नहीं जा सकते |
SR No.010086
Book TitleBuddha aur Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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