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टिप्पणियाँ
श्रद्धा, उनके नियमों का पालन और उनसे सम्बद्ध दूसरों के प्रति बन्धुभाव बिना यशस्वी नहीं हो सकती । " अपनी संस्था का अभिमान " इन शब्दों में ही ये तीन भावनाएँ पिरोई हुई हैं, और इसी से ऊपर कहा है कि यह शरणत्रय स्वाभाविक है ।
वर्तमान काल में गुरु भक्ति के प्रति उपेक्षा या अनादर की वृत्ति कई स्थानों पर देखने में आती है। उन्नति की इच्छा रखनेवाले को यह वृत्ति स्वीकार करने के लालच में नहीं पड़ना चाहिए । आर्यवृत्ति के धर्म अनुमत्र के मार्ग हैं। अनुभव कभी भी वाणी से बताये नहीं जा सकते । पुस्तकें इससे भी कम बताती हैं। पुस्तकों से सारा ज्ञान प्राप्त होता हो तो विद्यार्थियों के मूळाक्षर, बारहखड़ी और सौ या हजार तक अंक सीखने पर शालाएँ बंद की जा सकती हैं; लेकिन पुस्तक कभी भी शिक्षक का स्थान नहीं ले सकती; वैसे ही शास्त्र भी अनुभवी संतों की समानता नहीं कर सकते । .:
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फिर भक्ति, पूज्यभाव, आदर--यह मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति । थोड़े-बहुत अंशों में सब में वह रहती है। जैसे-जैसे वह परोक्ष अथवा कल्पनाओं में से निकल प्रत्यक्ष में उतरती है, वैसे-वैसे वह पूर्णता के अधिक समीप पहुँचती है। ऐसी प्रत्यक्ष भक्ति की भूख पूरी-पूरी प्रकट होने और उसकी तृप्ति होने पर ही निरालंब शांति की दशा पर पहुँच जाता है। गुरुभक्ति के सिवा इस भूख की पूरीपूरी तृप्ति नहीं हो सकती । मातापिता प्रत्यक्ष रूप से पूज्य हैं लेकिन उनके प्रति अपूर्णता का मान होने से उनकी अच्छी तरह भक्ति करने पर भी भक्ति की भूख रह जाती है। और उसे पूरी करने के लिए जब तक सद्गुरु की प्राप्तिःन हो तब तक मनुष्य को परोक्ष देवादि की साधना का आश्रय लेना पड़ता है। इस तरह गुरु ज्ञान