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टिप्पणियाँ
हो रहते हैं। गद में ऐसा भी होता है कि उनसे छूटने की इच्छा रखनेवाला उन्हें एकदम तोड़ डालता है।
फिर यह नियम कुसंस्कार, अप्रसन्नता अजागृति आदि के सामने किले के समान हैं। जिस समय किले से बाहर निकलकर लड़ने की योग्यता आती है। उसमें पड़े रहना भार रूप मालूम होता है और उसी तरह जब मैत्री, करुणा, समता, आदि उदास भावनाओं से चित्त भर जाता है तब उन नियमों का पालन प्रसन्नता भादि के बदले उद्वेग ही पैदा करता है। वह मनुष्य उस किले में कैसे रह सकता है ?
चित्त की प्रसन्नता का अर्थ विषयों का आनंद नहीं है। भोगविलास से कइयों का चित्त प्रसन्न रहता है। चाय, बीड़ी, शराब मादि से बहुतों का चित्त प्रसन्न होता है और बुद्धि जागृत होती है। कई मिष्ठान्न से प्रसन्न होते हैं। लेकिन यह प्रसन्नता यथार्थ नहीं है, यह विकारों का क्षणिक आनंद है। जिस समय मन पर किसी तरह का बोझ न हो, उस समय काम से मुक्त होकर घड़ीभर आराम लेने में जैसा अकृत्रिम, स्वाभाविक: आनंद होता है, वही सहज प्रसन्नता है।
३. समाधि
इस शब्द से सामान्य रूप में लोग ऐसा समझते हैं कि प्राण को रोक अधिक समय तक शव के समान पड़े रहना समाधि है। अमुक एक वस्तु या विचार की भावना करते-करते ऐसी स्थिति हो