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टिप्पणियाँ
प्राप्त करना ही उसका ध्येय होता है। धन को तथा प्रसिद्धि की वह जीवन का सर्वस्व नहीं मानता, लेकिन धन और प्रसिद्धि प्राप्त करना भाता है, वह इस प्रकार प्राप्त की जाती है, और उसे इस प्रकार प्राप्त करना चाहिए, इसी में लगे रहने पर उसके पास धन का इतना ढेर और इतनी लोक-प्रसिद्धि आती है जिसे देख, अनुभव कर वह उसका मोह त्याग देता है; और इसके आगे जो कुछ है, उसकी शोध में अपनी शक्ति लगाता है।
इससे उल्टे, दूसरे लोग एक ही स्थिति में जीवन पर्यंत पड़े रहते हैं। धन को अथवा लोक-प्रसिद्धि को या उससे मिलनेवाले सुखों को ही सर्वस्व मानने से दोनों भार रूप हो जाते हैं और उन्हें सम्हालने में ही आयु पूरी हो जाती है । इतना ढेर जमा करने पर भी उसमें से वह नहीं ही निकलते । धन से और बड़प्पन के आधार पर मैं हूँ और सुखी हूँ, ऐसा मानकर वह भूल करता है । लेकिन ऐसा विचार नहीं करता कि मेरे द्वारा, मेरी शक्ति के द्वारा धन और बड़प्पन आया है, मैं मुख्य हूँ और ये गौण हैं।
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किसी भी कार्यक्षेत्र में रहकर अपनी शक्ति का अत्यंत निस्सीम विकास करना इष्ट है । अल्प-संतोष और अल्प-यश से तृप्ति उचित नहीं, लेकिन कार्यक्षेत्र प्रधान वस्तु नहीं है । कार्यद्वारा जीवन का अभ्युदय प्रधान है, इसे नहीं भूलना चाहिए ।
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जो यह नहीं भूलते उन्हें किसी भी स्थिति में व्यतीत हुए जीवन के हिस्से के लिए शोक करने की जरूरत नहीं