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कुछ प्रसंग और निर्वाण १८. अजातशत्रु को गुरु की युक्ति ठीक अंची। उसने बड़े पिता को बन्दीगृह में डाल भूखों मार डाला और स्वयं सिंहासन पर चढ़ बैठा। अब राज्य में देवदत्त का प्रभाव बढ़ जाय तो इसमें पाश्चर्य क्या?
लोग जितना भय राजा से खाते थे उससे अधिक देवदर से डरते थ। बुद्ध का खून करने लिए उसने राजा को प्रेरित किया। लेकिन जो जो हत्यारे गए वे बुद्ध को मार ही न सके। निरतिशय अहिंसा और प्रेमवृति, उनके वैराग्यपूर्ण अंतःकरण में से निकलता हुआ मर्मस्पर्शी उपदेश उनके शत्रुओं के हृदयों को भी शुद्ध कर देता। जो जो हत्यारे गए वे बुद्ध के शिष्य हो गए। १९. शिला प्रहार:
देवदत्त इससे चिढ़ गया। एक बार गुरु पर्वत की तलहटी .की छाया में भ्रमण कर रहे थे, तब पर्वत पर से देवदत्त ने भारी शिला उनके ऊपर ढकेल दी। दैवयोग से शिला तो उन पर नहीं गिरी लेकिन उसकी चीप उड़कर बुद्ध देव के पैर में लग गई। बुद्ध ने देवदत्त को देखा। उन्हें उसपर दया आ गई । वे बोले : "अरे मूर्ख, खून करने के इरादे से जो तूने यह दुष्ट कृत्य किया, उससे तू कितने पाप का भागी बना, इसका तुझे भान नहीं है।"
२०. पैर की चोट से बहुत समय तक चलना-फिरना अशक्य हो गया। भिक्षुओं को भय हुआ कि फिर से देवदच बुद्ध को मारने का उपाय करेगा। इससे वे रातदिन उनके आसपास पहरा देने