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सम्प्रदाय
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२. सम्प्रदाय का विस्तार :
बुद्ध का स्वभाव ऐसा नहीं था कि जो शांति उन्हें प्राप्त हुई थी, उसका वे अकेले ही उपभोग करें। अपने साढ़े तीन हाथ के देह को सुखी करने को ही उन्होंने इतना प्रयास नहीं किया था। इससे उन्होंने जितने बेग से सत्य की शोध के लिए राज्य का त्याग किया उतने ही वेग से उन्होंने अपने सिद्धान्तों का प्रचार करना शुरू किया। देखते-देखते हजारों मनुष्यों ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। कितने ही मुमुक्षु उनका उपदेश सुन संसार का त्याग कर उनके मितु-संघ में प्रविष्ट हुए। इनके सम्प्रदाय या संघ में ऊँचनीच, गरीब-अमीर का भेद-भाव नहीं था। वर्ण और कुल के अभिमान से वे परे थे। मगध के राजा बिंबिसार, उनके पिता शुद्धोदन, कौसल के राजा पसेनाद तथा अनाथपिडिक आदि धनिकों ने जिस तरह उनका धर्म स्वीकार किया था, उसी तरह उपालि नाई, चुन्द लुहार, बंबपाली वेश्या आदि पिछड़ी जातियों में से भी उनके प्रमुख शिष्य थे। स्त्रियाँ भी उनका उपदेश सुन भिक्षुणी होने को प्रेरित हुई। पहले तो स्त्रियों को भिक्षुणी बनाने को बुद्ध तैयार नहीं थे, लेकिन उनकी माता गौतमी और पत्नी यशोधरा ने भिक्षुणी होने की आतुरता प्रकट की और उनके आग्रह के वश होकर उन्हें भी भिक्षुणी होने की आज्ञा बुद्ध को देनी पड़ी। ३. समाज-स्थिति:
बुद्ध के समय में मध्यम वर्ग के लोगों की मनोदशा नीचे लिखे अनुसार हो गई थी, ऐसा लगता है। १. देखो पिछली टीप्पणी नं.४