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________________ महाभिनिष्क्रमण ४. विचारः सिद्धार्थ केवल यौवनका उपभोग ही नहीं कर रहा था, बस्कि यौवन क्या है। उसके आरंभ में क्या है। उसके अन्तमें क्या है इसका भी विचार करता था । इतना ही नहीं कि वह केवल ऐश-आराम करता था, बल्कि ऐश-आराम क्या है ? उसमें सुख कितना है ? दुख कितना है। ऐसे भोगका काल कितना है । इसका भी विचार करता था। वह कहता है: "इस सम्पत्तिका उपभोग करते-करते, मेरे मनमें विचार आया कि सामान्य अश मनुष्य स्वयं बुढ़ापेके झपट्टेमें आनेवाला है, फिर भी उसे बूढ़े भादमी को देख ग्लानि होता है और उसका तिरस्कार करता है! लेकिन मैं स्वयं बुढापेके जालमें फंसने वाला हूं इसलिए सामान्य मनुष्यकी तरह जरा-प्रस्त मनुष्यको म्लानि करना या उसका तिरस्कार कना मुझे शोभा नहीं देता । इस विचारके कारण मेरा यौवनका मद जड़मूनसे बाता रहा। "सामान्य अज्ञ मनुष्य स्वयं व्याधिक झपट्टेमें आनेवाला है, फिर भी व्याधि-अस्त मनुष्य को देख उसे ग्लानि होती है और उसका तिरस्कार करता है। लेकिन मैं स्वयं व्याधिके पट्टे से नहीं छूट सका; इसलिये ब्याधि-ग्रस्त से ग्लानि करना या उसका तिरस्कार करना मुझे शोभा नहीं देता । इस विचारसे मेरा आरोग्य मद जाता रहा। "सामान्य अज्ञ मनुष्य स्वयं मृत्युको प्राप्त होनेवाला है, फिर भी वह मृत देहको देख ग्लानि करता है और उसका तिरस्कार करता है। लेकिन मेरी भी तो मृत्यु होगी, इसलिए सामान्य मनुष्य की तरह मृत-शरीरको देख ग्लानि करना और उसका तिरस्कार करना मुझे शोभा नहीं देता। इस विचारसे मेरा आयु-मद बिलकुल नष्ट हो गया ।" 'बुद्ध, धर्म और संघाके आधारसे । सिद्धार्थको बूढे, रोगी, शव और संन्यासी के अनुक्रमसे अचानक दर्शन होनेसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और वह रातोरात घर छोड़कर एक दिन निकल गया। ऐसी कथा प्रचलित है। ये कथाएँ कल्पित मालूम होती हैं । देखो उपरकी पुस्तकमे कोसंबाजीका विवेचना
SR No.010086
Book TitleBuddha aur Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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