________________
(5)
र अपना अभ्युदय साधना ही आज तक की हमारी रीति रही है। यह रीति न्यूनाधिक अंधश्रद्धा यानी बुद्धि न दौड़े वहीं तक ही नहीं परंतु बुद्धि का विरोध करनेवाली श्रद्धा की भी है। विचार के आगे यह टिक नहीं सकती ।
भिन्न-भिन्न महापुरुषों में यह देव-भाव अधिक दृढ़ करने का प्रयत्न ही सब सम्प्रदायों के आचायें, साधुओं, पंडितों जादि के जीवन-कार्य का इतिहास हो गया है। इनमें से चमत्कारों की, भूतकाल में हुई भविष्य-वाणियों की और भविष्यकाल के लिए की हुई और खरी उतरी आगाहियों की आख्यायिकाएँ रची हुई हैं और उनका विस्तार इतना अधिक बढ़ गया है कि जीवन-चरित्र में से to प्रतिशत या उससे अधिक पृष्ठ इन्हीं बातों से भरे होते हैं। इन बातों का सामान्य जनता के मन पर ऐसा परिणाम हुआ है कि मनुष्य में रही हुई पवित्रता, लोकोत्तरशील-संपन्नता, दया यादि साधु और वीर पुरुष के गुणों के कारण उनकी कीमत वह ऑक नहीं सकती, लेकिन चमत्कार की अपेक्षा रखती है और चमत्कार करने की शक्ति वह महापुरुष का आवश्यक लक्षण मानती है। शिक्षा से अहिल्या करनेकी, गोवर्धन को कनिष्ठ उँगली पर उठाने की, सूर्य को आकाश में रोक रखने की, पानी परसे चलने की, हजारों मनुष्यों को एक टोकनी भर रोटीसे भोजन कराने की, मरने के बाद जीवित होने की आदि आदि प्रत्येक महापुरुषके चरित्र में आनेवाडी बातों के रचयिताओंने जनता को इस तरह मिथ्या दृष्टि-बिंदु की