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________________ আগ २७. अशाक्ति नहीं, अनासक्ति ही वैराग्य है : ऊपर वैराग्य का एक अर्थ कहा गया । दूसरी तरह समझाऊँ तो वैपग्य यानी संसार का कारोबार चलाने की अशक्ति नहीं, पल्कि शांक होनेपर भी उसको निःसारता समझ उसमें रस न लेना, और किसी विशेष सार-रूप वस्तु की इच्छा उत्पन्न होना है। जैसे आप पसारी की दुकान चलाते चलाते बम्बई का बड़ा व्यापार करने लगे और पसारी की दुकान छोड दे तो इसका कारण यह नहीं होगा कि आप में पसारी की दुकान चलाने की शक्ति नहीं रही, बल्कि यह होगा कि पसारी की दूकान करते हुए बम्बई के व्यापार , में अधिक मुनाफा मालूम हुआ। वैसे ही संसार का काराबार अच्छी तरह चलाते चलाते उममें कितना सार है यह जानकर आत्मसुख का व्यापार करने के लिए नह जाड़ देने पर जो वैगग्य उत्पन्न होता है वह टिकनेवाला तथा आपकी भोर प्रजा का उन्नति करनेवाला होता है। २८. यों महावीर के कितने ही गुण गिनाये जा सकते हैं। उन्हें गिनाते बैलूं तो रात खतम हो जावंगी। संक्षेप में इतना ही कहता हूँ कि गीता के सालहवें अध्याय में जो जो देवा सम्पचियाँ गिनाई है उन सम्पत्तियों को प्राप्त किए बना धम के मार्ग पर चला नहीं जा सकता। २९. अहिंसा परम धर्म है : लेकिन महावीर के सम्बन्ध में बोलते हुए में अहिंसा का नाम न लूँ तो आप मुझे भूला हुआ समझेंगे। अहिना वा मानो
SR No.010086
Book TitleBuddha aur Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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