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________________ १०८ बुद्ध और महावीर यह मान्यता सर्वप्रथम किसने उत्पन्न की, यह जानना कठिन है। लेकिन अवतारवाद तथा बुद्ध-तीर्थकरवाद में एक भेद है। बुद्ध या तीर्थकर के तरीके से ख्याति प्राप्त करनेवाले पुरुष जन्म से ही पूर्ण ईश्वर या मुक्त होते हैं, यह नहीं माना गया। अनेक जन्मों से साधना करते-करते आग हुआ जीव बन्त में पूर्णता की चरम सीढ़ी पर पहुँच जाता है। और जिस जन्म में इस सीढ़ी पर पहुँचता है, उस जन्म में वह बुद्धत्व या तीर्थकरत्व को पाता है। अवतार में जीवपने की या साधक अवस्था की मान्यता नहीं है। यह तो पहले से हो ईश्वर या मुक्त है और किसी कार्य को करने के लिए इरादा-पूर्वक जन्म लेता है, ऐसी कल्पना है। इससे, यह जीव नहीं माना जाता, मनुष्य नहीं माना जाता । यह कल्पना भ्रम उत्पन्न करनेवाली साबित हुई है और इसका चेप थोड़े बहुत अंशों में, बौद्ध और जैन धर्मो को भी लगा है। इस तरह बुद्ध और महावीर के अनुयायी भी वाद तथा परोक्ष देवों की पूजा में फंस गए हैं और जैसे संसार चल रहा था वैसा ही चल रहा है।* * यह सब सर्व प्रकार की भक्ति के प्रति आदर कम करने के बाशय से नही लिखा गया है। अपने जैसे सामान्य मनुष्यों के बिए परावलम्बन से स्वावलबन की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर जाने का क्रममार्ग ही हो सकता है; लेकिन ध्येय स्वावलम्बन, सत्य और ज्ञान तक पहुँचने का होना चाहिए और भक्ति का उद्देश्य चित्त-शुद्धि है, यह नहीं भूलना चाहिए। (शेष पृष्ठ १०९ पर देखें)
SR No.010086
Book TitleBuddha aur Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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