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थे। जहाँ मान मिलने की सम्भावना होती वहां से वे चल पड़ते। उनके चित्र में अभी भी शांति न थी। फिर भी उनकी लम्बी तपश्चर्या का स्वाभाविक प्रभाव लोगों पर होने लगा और उनकी अनिच्छा होने पर भी वे धीरे-धीरे पूजनीय होते गये। ९. अन्तिम उपसर्ग:
विस प्रकार बारह वर्ष व्यतीत हो गये। बारहवें वर्ष में उनको सबसे कठिन उपसर्ग हुआ । एक गांव में एक पेड़ के नीचे वे ध्यानस्थ होकर बैठे थे। उसी समय एक ग्वाला बैक चराते हुए वहाँ आया। किसी कार्य का स्मरण होने से बैलों को महावीर के सुपुर्द कर वह गाँव में गया। महावीर ध्यानस्थ थे। उन्होंने ग्वाले का कहा कुछ सुना नहीं। लेकिन ग्वाले ने उनके मौन को सम्मति मान ली। बैल चरते-चरते दूर चले गये। थोड़ी देर बाद ग्वाला आकर देखता है तो बैल नहीं । उसने महावीर से पूछा। परन्तु ध्यानस्थ होने से उन्होंने कुछ नहीं सुना । इससे ग्वाले को महावीर पर बहुत क्रोध आया और उसने उनके कानों पर एक प्रकार का भयंकर आघात किया। एक वैद्य ने उनके कानों को अच्छा किया, परन्तु प्ररूम इतना भयानक था कि अत्यंत धैर्यवान महावीर के मुँह से भी राख-क्रिया के समय चीख निकल पड़ी थी।
१-मूल में लिखा है कि कानों में खूटियां गा दी। लेकिन 'इतना तो निश्चित हैं कि चोट सख्त की गई।