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परन्तु Logically (तार्किक ढंग से) कहना पड़ता है कि मृग और गाय आदि प्राणी जो तृण भक्षण से अपना जीवन व्यतीत करते हैं वे यदि मांस भक्षण के विमुख बनें तो उसमें विशेषता ही क्या है ? तत्त्व तो वहाँ है कि सिंह का बच्चा मांस का विरोध करे। यानी उनके कहने का अभिप्राय यह है कि धन-सोना, ऋद्धि-सिद्धि और ऐश्वर्य के झूले में झूला हुआ और खूनी संस्कृति से भरे हुए क्षत्रिय कुल के वातावरण में चमकती हुई तलवार के तेज में तल्लीन होता हुआ बालक, कुल परम्परा की कुल देवी समान खूनी खंजर के विरुद्ध महान् आन्दोलन करने के लिये सारी ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति को मिट्टी के समान मान कर और भोग को रोग तुल्य समझ कर योग की भूमिका में खूनी वातावरण को शान्तिमय और अहिंसक बनाने के लिए वनखण्ड और पर्वतों की कंदराओं में निस्पृही बन कर ज्ञातपुत्र वर्धमान (महावीर ) सारा जीवन व्यतीत करे । मात्र दिनों तक ही नहीं किन्तु महीनों एवं वर्षो तक भपति दीर्घ तपस्वी बन कर भटकता फिरे । साढे बारह वर्ष की घोर संयम यात्रा में अंगुलियों पर गिने जाने वाले नाम मात्र के दिनों में पारणे रूखे-सूखे टुकड़ों से करे और सारा
अहिंसा के आदर्श सिद्धान्त के पालन करने और कराने में निमग्न रहे । संयम की सर्वोत्कृष्ट साधना करने में तीव्रातितीव्र तप की ज्वालाओं से अपनी आत्मा को कंचन समान निर्दोष बनाने में तल्लीन रहे । उन की इस घोर तपस्या-संयम आदि अमूल्य जीवन-यात्रा के पर्दे में बड़ा भारी रहस्य था कि जिस में मात्र मानव समाज ही का नहीं, परन्तु प्राणी मात्र के परम श्रेय का लक्ष्य था ।
मुझ तो यह तार्किक अनुमान बड़ा ही सुन्दर प्रतीत होता है । दया के परम्परागत संस्कारों वाले कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति दया का पालन करे और उसकी पुष्टि के लिये बातें करे यह तो स्वाभाविक है तथा भोग सामग्री के अभाव में वैराग्य के वातावरण का असर अनेकों पर होना संभव है किन्तु राजकुल की ऋद्धि और ऐश्वयं के सागर में से