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बाला, गुणों का पक्षपाती, अपने आश्रित जनों का पालन-पोषण करने वाला, आगा-पीछा सोचने वाला, सौम्य, परोपकारपरायण, काम-क्रोधादि आन्तरिक शत्रुओं को दमन करने में उद्यत और इन्द्रियों पर काबू रखने वाला हो । इत्यादि गुणों से युक्त गृहस्थ ही श्रावकधर्म का अधिकारी है ।
एवं प्रत्येक तत्व के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानने की अभिरुचि से तत्त्वों के वास्तविक स्वरूप को जानते हुए सत् श्रद्धान वाला गृहस्थ ft Tara का अधिकारी है ।"
(ग) श्रावकर्म
जैन शास्त्र का विधान है - "चारितं धम्मो ।" अर्थात् चारित्र ही धर्म है।" चारित्र क्या है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा गया है
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" असुहाओ विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितं ।"
अर्थात् - अशुभ कर्मों से निवृत्त होना तथा शुभ कर्मों में प्रवृत्त होना चारित्र कहलाता है । वस्तुतः सम्यकचारित्र या सदाचार ही मनुष्य की विशेषता है । सदाचारहीन जीवन गन्धहीन पुष्प के समान है ।
गृहस्थ वर्ग के लिए बतलाये गये बारह व्रतों में से मात्र पहला अहिंसाणुव्रत, सातवाँ भोगोपभोगपरिमाण व्रत तथा आठव अनर्थदंडत्याग व्रत- इन तीन व्रतों का ही यहाँ संक्षेप से उल्लेख किया जाता है। क्योंकि इस निबन्ध का उद्देश्य मासाहार आदि अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण का परिहार है, जिस का समावेश इन तीनों व्रतों में होता है। अतः विस्तार भय से बारह व्रतो के स्वरूप का उल्लेख करना उचित नही समझा गया ।
श्रावक-श्राविकाओं के बारह व्रतों के नाम
पाँच अणुव्रत - १. स्थूल प्राणातिपातविरमण अहिंसा अणुव्रत,
१. सति सम्यग्दर्शळे न्याय्यमणुव्रतादीनां ग्रहणं, नान्यथेति । ( आचार्य हरिभद्रकृत धर्मबिन्दु प्र० ३ )