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क्का मांस किया जाता था परन्तु धान की बोल-चाल की भाषाओं में "नाम" एक फल का नाम प्रसिद्ध है। यह तो हुई भूतकाल की बातें 1 वर्तमान काल में भी हम देखते हैं कि जिस एक शब्द का विशेष अर्थ पंजाब में एक प्रकार का किया जाता है उसी शब्द का अर्थ उत्तर प्रदेश मैं दूसरी प्रकार का किया जाता है । उदाहरणार्थ "कुक्कुड़ी" शब्द का अर्थ पंजाब में "मुर्गी" समझा जाता है और उत्तर प्रदेश के मेरठ आदि जिलों में "मकई के भुट्टे" के अर्थ में इसका प्रयोग होता है तथा मारवाड़ मैं इसका प्रयोग रूई के काते हुए सूत को गुच्छी के लिये होता है । इन सब बातों का विचार करने से यह स्पष्ट है कि वलभी में प्राचीन जैन आगमों को पुस्तकारूढ़ करते समय भी भाषादि के बदलने की समस्या उन गीतार्थ निर्बंधों के सन्मुख अवश्य थी । यदि वे चाहते तो इन सूत्रपाठों को निकाल अथवा बदल भी देते, फिर भी उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया ? इस के पीछे उनकी बड़ी दीर्ष दृष्टि थी । यदि वे इन सूत्रपाठों को निकाल अथवा बदल देते तो (१) इन आगमों की प्राचीनता नष्ट हो जाती (२) भगवान् महावीर के गणधरों की मूल भाषा का अभाव हो जाता । (३) प्राचीन अर्द्धमागधी भाषा का इतिहास लुप्त हो जाता इत्यादि अनेक दोष आजाने पर भी यह समस्या हल न हो पाती, क्योंकि यदि उस समय भगवान् महावीर के एक हजार वर्ष के बाद भाषा तथा शब्दों के अर्थों में कुछ परिवर्तन हो चुका था तो स आगमों के पुस्तकारूढ़ होने के पन्द्रह सौ वर्ष बाद आज तक भाषाओं और उनके शब्दों के अर्थों में कोई कम परिवर्तन नही हुए। ऐसी परिस्थिति में फिर भी वैसी ही समस्या खड़ी रहती और अनेक सूत्र पाठों को आज भी बदलने की आवश्यकता पड़ती और भविष्य मे फिर अनेक शब्दों के अर्थ बदलते रहने के कारण यह समस्या वैसी की वैसी ही बनी रहती बार-बार सूत्र पाठों के बदलने से प्राचीन जैनागमों का अस्तित्व ही न रह पाता। इसलिये यही उचित है कि वर्तमान में विद्वानों के सामने जो विवादास्पद सूत्रपाठ हैं उनका अर्थ निर्बंध (जैन) आचार विचारों तथा प्राचीन भाषा के अर्थों के अनुकूल