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क्षत्रियकुंड २. जर्मन विद्वान डा. हर्मन येकोबी कहता है
अन्त में मुझे अपना निश्चय विचार प्रकट करने दो। मैं कहूंगा कि जैनधर्म के सिद्धान्त-मूल सिद्धान्त हैं। यह धर्म स्वतंत्र, अन्य धर्मों से सर्वथा भिन्न है। प्राचीन भारतवर्ष के तत्वज्ञान का और धार्मिक जीवन का अभ्यास करने केलिये यह बहुत उपयोगी और उत्तम है।
आज के विश्व को यदि वास्तविक स्थाई शांति प्राप्त करने की इच्छा है तो प्रभु महावीर के विश्व कल्याणकारी इन अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह आदि शिक्षाओं के प्रचार एवं पालन करने केलिए प्रत्येक व्यक्ति को कटिबद्ध हो जाना चाहिए। इस से आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक आदि सकल समस्याएं शांतिपूर्वक हल होकर प्रजा शांति-सुख का सांस लेगी।
भगवान महावीर का निर्वाण भगवान महावीर का निर्वाण ई. पू. ५२७ कार्तिक अमावस्या को रात्रि के समय मगध जनपद में राजगृही के निकट मध्य पावानगरी में हआ। उस रात्रि को देवों और मनुष्यों ने मिल कर दीपावली के रूप में उत्सव मनाया था। तदानसार आज तक कार्तिक अमावस्या को सर्वत्र बड़े उत्साह से दीवाली पर्व मनाया जाता है। कार्तिक की दीवाली के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा के दिन महावीर निर्वाण संवत का प्रारंभ होता है। उसी दिन भगवान महावीर के मुख्य शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम को पावानगरी के निकट गुणाया जी में केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी। भगवान महावीर के ११ गणधरों में से ९ गणधरों का निर्वाण भगवान के जीवनकाल में ही राजगृही के विभारगिरि (पर्वत) पर हो गया था। भगवान के निर्वाण के बाद इन्द्रभूति गौतम और सुधर्मा स्वामी दोनों गणधर विद्यमान थे। भगवान के निर्वाण के तुरन्त बाद गौतम को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। अतः भगवान के चतुर्विध संघकी व्यवस्था पांचवें गणधर सुधर्मा उस समय छद्मस्थ थे। इसलिये उन्होंने संभाली। आज भी श्वेताम्बर जैन (मूर्तिपूजक) संघ परंपरा सधर्मास्वामी के निग्रंथ गच्छ (गण) से संबंधित चली आ रही है। और मानी भी जाती है। पश्चात् गौतमस्वामी तथा सुधर्मास्वामी ने (केवली हो कर) क्रमशः राजगह ही विभारगिरि पर ही निर्वाण प्राप्त किया। सधर्मास्वामी के बाद उनके शिष्य पट्टधर जम्बस्वामी हुए। भगवान के बाद गौतम, सुधर्मा और जम्बू ये तीनों केवली होकर निर्वाण पाये।"।