________________
२४
महावीर के सिद्धांत गरिमा सारगर्भित है । यही कारण था कि भगवान महावीर के उपदेश को जनता ने श्रद्धा पूर्वक अपना लिया था। सामान्य प्रजा तो क्या मगध नरेश श्रोणक, अंगदेश नरेश अजातशत्रु, वीत्तभ्यपत्तन नरेश उदायन, दशार्णदेश नरेश दशार्णभद्र, विदेह गणतंत्र के महाराजा चेटक, कोशल तथा मल्ल देशों के १८ शासक एवं अनेक राजा-महाराजा - सम्राट भगवान महावीर के अनुयायी बने। कितने ही दिग्गज विद्वान इन्द्रभूति आदि दीक्षा ग्रहण कर निग्रंथ मुनि शिष्य बने । पायथोगोरस (Pythogoras) ई. पू. ५३२ जैसे युनानी तत्ववेता ने भी पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों को प्रभु महावीर की शैली से ही स्वीकार किया था। उनका उपदेश समुद्र पार के यूनान, मिश्र, चीन, टर्की, तक भी पहुंचा था और वहां के विदेशी युवराज आर्दरकुमार ने भी यहां आकर दीक्षा ग्रहण की थी। अनेक राजकुमारों, राजकन्याओं, राजरानियों, राजाओं ने भी मुनि दीक्षायें ग्रहण कीं। कहने का आशय यह है कि प्रभु महावीर की संस्कृति दिगान्तव्यापी बनी ।
. उनके तत्त्वदर्शन के अनेक गहन विषयों में पंचास्तिकाय, सप्तनय, सप्तभंगी अनेकांत, अष्टकर्म, नवतत्व, षडदर्शन आदि मुख्य थे। जिनका शास्त्रों में अति सूक्ष्मता से वर्णन है।" उन्हें समझना बड़े कुशाग्र बुद्धियों क काम है। ऐसा कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि उन का पदार्थ विज्ञान परमाणुवाद आधुनिक विज्ञान के (Atomic and molecular theories) अनुवाद की मान्यता से तो क्या परन्तु डा. ऐन्स्टीन, एडींगन स्पेनर, ड्रेटन और न्यूटन की मान्यताओं (Theories) को भी मात करते हैं। यदि निष्पक्ष भारतीय विद्वान भगवान महावीर के तत्वज्ञान की प्रशंसा करें तो आश्चर्य ही क्या है। किन्तु पाश्चिमात्य विद्वान डा. हर्मनयकोबी, डा. हर्टल, डा. वींटरनीज, डा. थोमस, डा. हेल्मेथ, डा. बोनग्रेजनप, डा. टेसेटेरी आदि ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। यथा
१. जर्मन विद्वान डा. हर्टल लिखता है
जैनों का महान संस्कृत साहित्य यदि अलग कर दिया जाय तो मैं नहीं कह सकता कि संस्कृत साहित्य की क्या दशा हो । जैसे-जैसे मैं इस साहित्य को विशेष रूप से जानता जाता हूं वैसे-वैसे मेरा आनन्द बढ़ता जाता है। इसे विशेष रूप से मेरी जानने की इच्छा बलियसी हो जाती है।