________________
अत्रियक
"..... नाते नातपुते नातकुल विणिवट्टे (विदेहे) विदेहदिन्ने विदेहबच्चे विदेहसुनाले सतुस्सहे समचउरस-संवरे सहिते वयरिसहपाराव-संचय अनुलोग वायुवेरे कंकगहणी कवोयपरिण।। (आवश्यक नियुक्ति पत्र २६२)।
इसमें विदेह शब्द अलग होने पर भी कल्पसूत्र के . टीकाकार ने जो अर्थ विदेह का किया है, वह यहां पृथक रूप से है। जो समचरससंव सहिते-बज्वरसिहमारायसंचय" इन शब्दों से निहत है। इससे मालूम होता है कि उनका लक्ष्य भगवान की जन्मभूमि की और (विदेह) जो मुख्य विषय था न जाते हुए उन के मुख्य लक्षणों पर ही चला गया है।" आचार्य श्री की यह धारणा भ्रमपूर्ण है क्योंकि इस पाठ में विदेह का अर्थ नियुक्तिकार ने (वि देह) देहातीत किया है। यानि मोहममता से निर्लिप्त शरीर वाला अर्थ करके उनके निर्दिष्ट शरीर के लक्षण रूप (समरचउरसं संठाण व वज्जरिसह नारायसंघयण अलग लिखा है।
जबकि उपाध्याय जी ने पहले विदेह शब्द केलिये भगवान के विशिष्ट शरीर तथा अंतिम विदेहसि शब्द केलिये विदेहातीत यानि मोह-ममता से निर्लिप्त शरीरवाला अर्थ किया है। आचार्य श्री ने यदि पहले पाठ पर विशेष ध्यान दिया होता तो वे ऐसी भल न करते। पहले पाठ में प्रथम विदेह शब्द तथा अंतिम विदेही शब्द का प्रयोग हआ है। जबकि दूसरे पाठ में विदेह शब्द मात्र एक बार आया है और शरीर का लक्षण अलग दिया है। अतः इन दोनों पाठों में कोई असमानता का प्रसंग न होने पर भी आचार्य श्री ने अपनी मान्यता की पष्टि केलिये ही वास्तविक अर्थ की तरफ लक्ष्य नहीं दिया। यह खेद का विषय है।
(ग) क्षत्रियकुंड को विदेह जनपद में सिद्ध करने केलिये वसुकंड, भांतिका या वैशाली-कोटिग्राम के मध्य का कोई स्थान (तीनों) मानकर किसी एक का निश्चय ही नहीं कर पाये- यह भी उनकी भ्रामक मान्यता की पुष्टि करता है। । (घ) अब हम यहां शास्त्र में प्रयुक्त भगवान महावीर केलिये वैशालीय शब्द पर विचार करेंगे।
"एवं से उदाहु अणुतर-नाणी अणुत्तरदंसी-अणुत्तर-नाणदंमणधरे अरहा णाएपुत्ते भगवं वेसलिए विद्याहिये ।।२२।। (१) टीका
विशालकुलेभवाद् वैशालिकः तथा चोरतं. विमला जननी यस्य, विशाल कुलमेव च। विशाल प्रवचनं यस्य, तेन विशालको बिनः।।
(सूत्रकृतांग पीलंकाचार्य टीका)