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________________ [ भाग १८ पदार्थों का सूक्ष्म दृष्टि द्वारा निरीक्षण करना और उन पर गम्भीर विचार करना आपका सहज स्वभाव था । सच है कि सदैव विचारशील रहे बिना किसे महत्ता प्राप्त हुई है ? अतएव आप युवावस्था के सुख भोगते हुए भी यौवन क्या है ? इसके रम्भ और अन्त में क्या है ? मनुष्य केवल स्वोदर-पोषण के लिये जीवित है या समाज के प्रति भी उसका कुछ कर्त्तव्य है ? मानव जीवन की सार्थकता क्या है ? जैन संस्कृति को किस प्रकार जीवित रखा जा सकता है ? आदि प्रश्न पहेलियों पर निरन्तर विचार करते रहते थे । यद्यपि आपने महात्मा बुद्ध के समान महाभिनिष्क्रमण नहीं किया था, घर-द्वार, कुटुम्ब परिवार छोड़ा नहीं था; पर सम्राट् भरत के समान अलिप्त रहकर आप आत्म-ज्योति प्रज्वलित करते रहे । घर छोड़ कर साधु बन जाना सरल बात है, पर घर में रहते हुए अनासक्त रहना अत्यन्त दुष्कर और अभ्यास साध्य । इतिहास और शास्त्रों के पन्ने उलटने पर भी ऐसे उदाहरण इने गिने ही मिलते हैं, जिनमें अनासक्त कर्म योगियों का जीवन चरित्र प्रतिपादित किया गया हो । अधिकांश उदाहरणों में घर छोड़ वन में आत्म-शोधन करने की बात कही गयी है। बीसवीं शताब्दी में जैन समाज में आप जैसा राजर्षि, जिसके हृदय में समाज की वेदना, जिसकी आँखों में समाज के आँसू और जिसके मस्तिष्क में समाज कल्याण की चिन्ता वर्तमान हो, दूसरा नहीं हुआ। समाज के दुःख- दैन्य, आडम्बर, अज्ञान, कुरीतियाँ आदि का आपने यथार्थ अनुभव किया; अतः जमीन्दारी के शासन का भार ग्रहण करने के साथ ही आप समाज परिष्कार में लग गये । भास्कर बाबू साहब ने अपनी भावना- प्रवण अंगुलियों से निर्मल तूल की बत्तियाँ बटकर उन्हें लघु दीपक में संजोया और अपने तन-मन-धन की स्नेह धारा से सिक्त कर एवं युग-युग से संचित अरमानों की लहलहाती लौ से लगाकर समाज और साहित्य के अन्धकार को विच्छिन्न किया । आपने अपने भावों के तुमुल आवेग से भरे करों द्वारा अर्चना थाल को उठाकर जैनतीर्थों की आरती उतारी। जिन पवित्र तीर्थों को पण्डे और पुजारियों ने अपनी पण्डागिरी द्वारा बदनाम कर दिया था, जहाँ वीतरागी प्रभु की बिडम्बना की जाती थी, वहाँ बाबू साहब ने सात्विकता का प्रचार किया तथा मिथ्यामार्ग को सम्यत्त्वमार्ग के रूप में परिवर्तित किया । मन्दारगिरि सिद्धक्षेत्र को, जहाँ से वासुपूज्य भगवान् ने निर्वाण लाभ किया है, पण्डों ने अपनी चालबाजी से हथिया लिया था । बहुत दिनों तक इस जैनतीर्थ को पण्डे लोग धनार्जन के लोभ से अजैनतीथ घोषित करते रहे; परन्तु आपने इस निर्वाण भूमि को मुकद्दमा लड़कर पुनः अपने अधिकार में किया तथा इस क्षेत्र की सुव्यवस्था का प्रबन्ध भी किया । दक्षिण भारत के
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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