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________________ } राजर्षि बाबू देवकुमार [ ले० - श्रीयुत पं० नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य ] अनासक्त कर्मयोगी संसार में "जल तैं भिन्न कमल है" के समान निवास करते हैं। श्री बाबू देवकुमार जी भी ऐसे ही महात्मा थे, जिन्होंने अपनी मानव सुलभ शक्तियों का विकास कर समाज में श्रद्धास्पद गौरव प्राप्त किया था । प्रायः देखा जाता है कि जो सम्पन्न कुल में उत्पन्न होता है, सुसंस्कृत समाज में पलता है, उच्चात्युच्च शिक्षा की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है, वह बहुधा असामान्य बन जाता है, उसकी गर्वानुभूति में 'अह' का भाव घर कर लेता है, उसके मन-वचन-कर्म में सम्पन्नता और भद्रता का दर्पं तथा वैभव की विलासिता धूप-छाँह की तरह झिलमिलाती रहती है; किन्तु बाबू साहब का व्यक्तित्व इससे भिन्न था। आपके व्यक्तित्व वृक्ष के पुराने पत्त झड़ गये थे, रईसों की विलासिता और जमीन्दारों का आक्रोश आपको छू भी नहीं गया था। विद्या - बुद्धि वरेण्य बाबू साहब गृहस्थी और जमीन्दारी के द्वन्दों में पड़कर भी भस्मवृत्त अंगारे के समान जाज्वल्यमान थे, विद्वत्ता और बुद्धिमत्ता के मणिकाञ्चन संयोग ने परिस्थितियों के ग्रहचक्र में भी आपको सदा ध्रुव नक्षत्र रखा । १७-१८ वर्ष की अवस्था में जब जमीन्दारी का भार बाबू साहब ने अपने सबल कन्धों पर धारण किया, उस समय रागारुण सूर्य ने अपनी सहस्र रश्मियों के मणिदीपों को संजोकर आरती उतारी, मुक्तकुन्तला प्रकृति ने उल्लास से भरकर मधुर राग अलापा । प्रकृति के अणु अणु को विश्वास था कि यह युवक "यौवनं धनसम्पत्ति: प्रभुत्वं" " को प्राप्त कर निश्चय ही राग-रंग में लीन रहेगा; पर बाबू साहब सचमुच में राजर्षि रहे। आपकी पवित्रता से भयभीत हो वैभव का मद आपका स्पर्श भी न कर सका; रईसों के चोचलों ने आपके पास फटकने का साहस भी नहीं किया । यद्यपि आपके अभिभावकों और हितैषियों ने सभी प्रकार की विलास सामग्री एकत्रित की थी। शीत, उष्ण और वर्षा ऋतु पर विजय पाने एवं मनोरंजन के लिये नाना प्रकार के मोहक कृत्रिम साधन संकलित किये गये थे, पर विवेकी बाबू साहब इन साधनों ने विलासिता के बदले आपमें विरक्ति ही उत्पन्न की। गृह कार्य करते हुए. भी संसार से, अलिप्त रहे | साधन सामग्रियाँ भोग के स्थान में राजयोग का कारण बनीं। बाबू साहब पक्के राजयोगी थे, विलास वैभव आपको सर्वथा हेय नहीं प्रतीत हुआ; किन्तु आप इसके बीच रहकर भी साधना के मार्ग में रत रहे । अनासक्त रहे । आप बचपन से ही विचारशील और एकाग्रचित्त रहते थे । दृष्टिगत होने वाले
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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