SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण १] बाबू देवकुमार जी : एक संस्मरण सम्पादन में चारा नागरी प्रचारिणी सभा से पुस्तकें प्रकाशित होती थीं । 'तर्कशास्त्र' नाम की भी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी । एक बार सभा में एक विशेष बैठक का आयोजन हुआ था। उस बैठक में सम्मिलित हो आपने उक्त पुस्तक के लेखक को एक सुवर्णपदक से पुरस्कृत कर सम्मानित किया था। युगो की बात है, पूज्य गुरुजी के मुँह से मैंने सुना था कि जिस समय बाबू देवकुमारजी मृत्युशय्या पर पड़े हुए अन्यान्य अपनी संस्थाओं के लिए निर्बाध स्थायी रूप से मिलनेवाली मासिक वृत्ति के निमित्त अपनी लाखों की भूसंपत्ति अन्तिमवृत्ति दानपत्र (Endowment) में लिखवाकर उसे राजमुद्रांकित ( Registered ) कर रहे थे, उस समय उन्होंने भारा नागरी प्रचारिणी सभा को भी यादकर मुझे बुलवाया था; किन्तु पार्श्ववर्ती लोगों ने टालमटूल कर दिया । अन्यथा समाके लिए भी कुछ न कुछ मासिक वृत्ति की स्थायी व्यवस्था अवश्य कर देते । जो हो, आपकी प्रतिमावस्था की सच्चेष्टा ने हिन्दी की व्यापकता तथा प्रामाणिकता के प्रसार के लिए अलक्षित रूप से अमूल्य तथा असीम साधन " जैन सिद्धान्त भवन" ( The Central Jain Oriental Library) में इकट्ठा रखा है। यहाँ हिन्दी के प्राणस्वरूप अपभ्रंश की अपूर्व निधियाँ संचित हैं जो देशी भाषाओं की एक सबल श्रृंखला है। साथ ही इस "जैन- सिद्धान्त भवन" को प्राक्कातीन विषयकोविदों की जिज्ञासा-पिपासा की परितृप्ति के लिए उनके साध्य की सिद्धिका असाधारण साधन समझना कोई अत्युक्ति नहीं कहा जायगा । 得 आप धार्मिक शिक्षा तथा संस्कृत-प्रसार के प्रबल पक्षपाती थे। क्योंकि आपने बच्चों को धर्मशिक्षा पूर्वक संस्कृत पढ़ाने के निमित्त पं० लालारामजी शास्त्री को बड़े मह के साथ बुलाकर सम्मानपूर्वक रक्खा था। चौबीसों घंटे शास्त्रीजी की ही देखरेख में रहकर दोनों बच्चे कातन्त्रव्याकरण पढ़ते तथा धर्मशिक्षा ग्रहण करते थे ! आपकी हार्दिक इच्छा रहती थी कि धारा की जैन जनता अपनी सामाजिक एवं धार्मिक रीति-नीति की विशुद्ध परम्परा का पालन करने में कभी शिथिलता नहीं आने दे। क्योंकि आप कहा करते थे कि अपने धर्मका मर्म नहीं जानने एवं दैनिक कार्यक्रम में धर्मको प्राधान्य नहीं देने से भारतीयता की समुज्ज्वल प्रभा सदा के लिये निर्वाणप्रायः हो जायगी । अंग्रेजी-दाँ लोगों से बातें करने में बड़ी दृढ़ता एवं निर्भीकता से कहा करते थे कि भारतवर्ष की आध्यात्मिकता एवं संस्कृति के सुललित सुवर्णसूत्रको पाश्चात्य शिक्षा-दीक्षित बहुसंख्यक भारतीय अपने कन्धे से उतार फेंकने में ही अपनी नव्य भव्यता तथा आत्मसम्मान वृद्धि की समुचित सुव्यवस्था समझते हैं ।
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy