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________________ भास्कर [भाग १ - - मेरा अध्यापन अबाध गति से चलने लगा एवं गुरुजी से बाबू साहब का प्रकुन परिचय पा और गुणवर्णन सुनकर मैं बड़ा ही प्रभावित हुआ तथा साथ ही अब आपको बहुत निकट से देखने भी लगा। आपके यहाँ अन्याय विषयों के विद्वानों का भी समागम रहता था। कभी किसी मौलवी को हाथ में तसबीर लिये बातें करते देखता था तो कभी किसी पण्डित को तासिक विचार करते। मयूरपिच्छधारी कौपीनी जैन साधुओं के आगे नो भक्तिविलन एवं प्रणत मैंने आपको अनेक बार देखा था। हाँ, उन दिनों पारा के पास ही पास रहनेवाले पं० मुरलीधर शर्मा नामक एक अच्छे नैयायिक विद्वान सदा आपके पास रहा करते थे। जब-तब बाबू साहब को पं० जी से शास्त्रीय विचार-विनिमय करते भी देखता था। ५० जी बड़े ही निस्पृह. चिन्तनशील. आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत तथा ज्ञानगरिमासे गंभीर प्रकृति के मुझे जान पड़ते थे। किन्तु दुःख की बात है कि पंडित जी ने अपने लिए "व्याघ्रचर्मावृत शृगाल' की लोकोक्ति को ही चरितार्थ कर दिखाया। क्योंकि कालान्तर में मुझे ज्ञात हुआ कि पं० जी के गांव के निकट ही बाबू साहब के सैकड़ों बीघे जीरात के खेत हैं। 'दर्शनशास्त्र की पाठशाला खोलकर मैं निश्चिन्त हो घर पर ही छात्रों को पढ़ाना चाहता हूँ' यह कहकर आपसे कई बीघे जमीन उन्होंने वृत्तिरूप में लिखषा ली, जिसका मूल्य कम से कम ५० हजार रुपये होता है, किन्तु प्रस्तावित पाठशाला अपने प्रकृत रूप में न रहकर पं० जी के परिवार पोषण में हो परिणत हो गयी। अन्त में पं० जी ने बहुत दिनों तक पागल होकर बड़े कष्ट से ऐहिक लीला समाप्त की। किसी ने सच कहा है- 'धोखा खाना कहीं अच्छा है धोखा देने की अपेक्षा ।" बाबू साहव में एक अपूर्वता मैंने यह देखी कि श्राप कभी हँसते नहीं थे। श्राप से बातें करते अन्यान्य शिक्षित समुदायको प्रसंगानुसार ठहाका लगाते में भले ही देख लूं। हाँ-पण्डिताचार्य स्वामी नेमिसागरजी वर्णी के साथ जब धार्मिक बातें छिड़ जाती थीं तो हास्यप्रसंग पर कभी-कभी आपके प्रशान्त मुखमंडलपर स्मितमुद्रा की एक क्षीणरेखा बिजली-सी कौंध जाती थीं। वस्तुतः हमारे पडिताचार्य वर्णीजी महाराज विशुद्ध वीर, करुण, हास्य एवं शान्तरस का अवतरण करने में सिद्धहस्त हैं। आप ही जैसे कर्मठ सच्चे साधुओं की समाज को आवश्यकता है। मैं ऊपर एक जगह कह पाया हूँ कि आप सार्वजनीन कार्यों में भाग लेना अपना पुनील कर्त्तव्य समझते थे। ऐसी दशा में अमर भाषा संस्कृत की दौहित्री, प्राकृत की पुत्री तथा अन्यान्य अपभ्रंश भाषाओं की सहेली आर्यभाषा हिन्दी की भोर मापकी सदय दृष्टि होनी कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी। नन दिनों गुरुजी के
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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