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________________ [भाग १ - - सच बात तो यह है कि पूर्व पुरुषों के सुसंस्कार अथवा कुसंस्कार प्रागेमानेवाली पीढ़ियों में अलक्षित रूप से संक्रान्त होते रहते हैं। और उन संस्कारों का हास अथवा विकास मात्रानुसार हुश्रा करते हैं। आपके पितामह बाबू प्रभुदासजी संस्कृत के मर्मज्ञ तथा धर्मप्रवण व्यक्ति थे। यह रहस्य मुझे तब ज्ञात हुआ जब मैं "जैन. सिद्धान्त-भवन, पारा" में पुस्तकाध्यक्ष के पदपर रहकर स्वर्गीय सेठ पद्मराज रानीवाले के सम्पादन में भवन से निकलनेवाले "जैन-सिद्धान्त-भास्कर" में निर्जीवसी कुछ तुकबन्दियाँ और ऊलजलूल एकाध लेख भी दिया करता था। उसमें आदिपुराण के मंगलाचरण और प्रशस्ति भी मुझे देनी पड़ी। भवन में संरक्षित श्रादिपुराण की प्रति बड़ी जीर्ण-शीर्ण थी। उसे बार-बार उजटते पुनटते मुझे देखकर बाबू साहब के पूज्य मामा बाबू बच्चलालजी ने कहा कि पंडितजी आदिपुराण की इसी प्रति का चि० निर्मलकुमार के प्रपितामह बाबू प्रभुदासजी प्रतिदिन स्वाध्याय करते थे। और सब लोग उन्हें पण्डित कहा करते थे। यही कारण है कि परम्परागत यह संस्कार उत्तरोत्तर विकासोन्मुख दृष्टिगोचर हो रहा है । ___ एक उल्लेखनीय बात मैं भूल ही रहा हूँ। बात यह थी कि काशी की यशोविजय श्वेताम्बर जैन पाठशाला के अधिष्ठाता परम विद्वान् तथा प्रकृत विरक्त श्री धर्मविजय सूरिजी महाराज पाठशाला के १५-२० छात्रों तथा एक व्याकरणाध्यापक के साथ पारा में पधारे थे। यहाँ आपका शुभागमन कैसे हुआ था, यह मुझे ज्ञात नहीं। क्योंकि पारा में श्वेताम्बर श्रारक एक भी नहीं था। बहुत संभव है कि धार्मिक भावना से ओतप्रोत बाबूसाहब पारा की जनता को कृतार्थ करने के लिए श्री सूरिजी महाराज को आप्रहपूर्वक यहाँ लिवा लाये हों। आप ही सूरिजी महाराज के अनन्य प्रातिथेय थे। श्रीसूरजी चार-पाँच दिनों तक यहाँ रह गये थे। एक बड़े भारी जैनाचार्य आये हुए है, नगर में इसकी बड़ी धूम थी। श्री शान्तिनाथजी के विशाल मन्दिर के सुविस्तृत प्राङ्गण में प्रतिदिन आपका प्रवचन होता था जिसका सदुपयोग जैनमंडली बड़ी श्रद्धा से करती थी। श्रीसूरिजी के विदाई के दिन बाबू साहब ने पूज्य गुरुजी को भी बुलाया। आपका अन्तेवासी मैं भला क्यों नहीं साथ में रहता ? आपने श्री सूरिजी से परिचय दिया कि हमारे यह पं० जी बिहार के गण्य-मान्य विद्वानों में है। और हम सबों का सौभाग्य है कि आप यहीं के रहनेवाले हैं। सूरिजी ने अपनी सहज शान्तिशीलताकी सुधाधारा प्रवाहित करते हुए जैनदर्शन तथा षड्दर्शन-सम्बन्धी विचार-विनिमय करके कहा कि आप जैसे सद्विवेचक विद्वान् ही जैन दर्शन के स्याद्वाद-सिद्धान्त के प्रति जो अन्यान्य ब्राह्मण विद्वानों के हृदय
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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