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________________ भास्कर [भाग १८ बनारस, श्री धर्मकुमार दातव्य औषधालय प्रारा, तथा विभिन्न जिनालयों को आर्थिक सहायता प्रदान कर उनके जीवन की साधना को चिरस्थायी बना रहा है। समाज के प्रति उनका अन्तिम सन्देश यही था कि वे जैन संस्कृति को मानव-विकास का साधन बनाना चाहते थे और भगवान महावीर के अनुयायी होने के नाते उनके शान्तिमय विचारों से समस्त विश्व को सांसारिक ज्वाला से मुक्त करना अपना परम कर्त्तव्य समझते थे । अन्तिम अवस्था में शल्य-चिकित्सा के लिए कुमार जी कलकत्ता ले जाये गये। चिकित्सक इनकी आरोग्यता से निराश हो चुके थे और अब इनकी भी इच्छा जीने की नहीं रह गयी थी, बल्कि यथाशीघ्र मृत्यु को आलिंगन कर नव जीवन प्रात करने की थी। मृत्यु के छः घण्टे पहले इन्होंने सल्लेखना व्रत धारण कर लिया और जीवन लाभ करने पर भी अनाहार का निश्चय कर लिया। इसके बाद इन्होंने अपने पास से नेमिसागर वर्णीजी को छोड़ कर सबको हटा दिया और स्वयं आत्मचिन्तन और शास्त्र श्रवण में मम हो गये । इसी शान्तिमय अवस्था में संवत् १६६४ की श्रावण शुक्ला अष्टमी को जैन-समाज का यह प्रकाशपुंज उस विद्युत रेखा के समान चमक कर अदृश्य हो गया जो भयानक मेघमण्डल से आच्छादित गगन के अन्धकार में आगे बढ़ते हुए पथिक को मार्ग की असष्ट झाँकी देकर विलीन हो जाता है; समाज को पुनः अन्धकार में टटोलने के लिए असमय में छोड़ देने वाले इस मार्ग प्रदर्शक से वंचित होकर संपूर्ण जैन समान ही नहीं प्रासमान भी अश्रुधारा बरसा रहा था । परन्तु इस क्षणिक आलोक में ही उन्होंने हमें मार्ग का जो आभास दिया है, उसे ग्रहण कर हम सरलता पूर्वक प्रात्म विस्मृति को इस भयानक अँधियारी में आगे बढ़ते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं जहाँ पर है केवल शान्ति, सौहार्द, सन्तोष और समृद्धि ।
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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