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बाबू देवकुमार जी के प्रति
[रचयिता-श्री महेन्द्र 'राजा'] धन्य हो तुम ध्रुव यशस्वी, ज्ञान-मन्दिर के पुजारी, बन्दनीय, विशाल-वन्दित, दीन-जन के कष्टहारी । हृदय था सुविशाल पाया, निष्कलंक चरित्र थे तुम, शान्ति के एकान्त सेवी, छात्र हितकारी बने तुम ॥ तुम वदान्य-वरेण्य राजा, कर्ण से थे महादानी, एक निष्ठ, सजीव प्रतिमा, स्याग की थे निरभिमानी ! तुम न भूले संस्कृत को, संस्कृति के पुजारी तुम, देव ! पारा सत्य ही तो बन गया अब 'देव-आश्रम' ॥ तुम्हारी दृष्टान्तभूत चरित्र-निर्मलता कहें क्या ? सत्यवादी, सुहृद, विद्यारसिक तुम सब थे; नहीं क्या ? हुआ कातर हृदय दुःख लख, दूसरों का नयन-भर-जल, मुस्कराये दूसरे क्षण दे दया का दान निर्मल ॥ किया निर्भय दीन-जन को वह तुम्हारी थी मनुजता, वह मनुजता थी कि या थी, वह मनुज-हृद की सरलता। तुम न हँसते थे कभी, पर हृदय में था हास्य रहता, सहज, मन्द मुमधुरता का एक मौन प्रगत बहता। तुम न सामाजिक-जगत में कभी पीछे हटे, बढ़तेही गये तुम सदा ही, निष्काम-भावी चरण धरते । मूक-वाणी के स्वरों में, कह रहा है 'देव-पाश्रम' यह तुम्हारी सजग स्मृति, यह तुम्हारा 'बाल-आश्रम' ।। तुम रहे सिद्धान्त के पक्के, चले सिद्धान्त लेकर, आज गाथा गा रहा तेरी, 'भवन-सिद्धान्त' सुन्दर । देव ! कवि के स्वर मिला लो, आज अपनी साधना में, कवि न विस्मृत भूल जावे, कह रहा क्या भावना में ?