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भास्कर
[भाग १८
दुःखों से छूटने के लिए अपने कर्मों की निर्जरा कीजिए."..."कर्मों को दूर करने का उपाय ध्यान है....... ध्यान ज्ञान और वैराग्य से होता है .........." ज्ञान और वैराग्य परिग्रह की ममता को दूर करने व सत्संगति से प्राप्त होते हैं। __वह धर्म वास्तविक नहीं कहा जा सकता जो हमें, परलोक की सुनहली श्राशा में फँसाए रखकर इसलोक में अकर्मण्य बना दे। सच्चा धर्म तो लौकिक क्षेत्र में भी उन्नति का पथ प्रदर्शित करता रहता है और भविष्य से भी निश्चिन्त बना देता है। ऐसे प्रात्म धर्म का सच्चा परिचय पाने के लिये अनुभवी साधक के अतिरिक्त दूसरा कोई साधन नहीं। जिस जाति में ऐसे धर्म गुरुत्रों का अभाव हो गया उसका भविष्य अन्धकारमय नहीं तो और क्या ? इसीलिए कुमार जो दुःख के साथ कहते हैं:__"यद्यपि दो या चार क्षुल्लक हमें इधर उधर दिखलाई पड़ते हैं पर ये विद्याहीन व ध्यान के मार्ग से अनभिश होने के कारण न तो अपना भला न दूसरों का भला कर सकते हैं।"
परन्तु आज भी हमारे पास अपने पूर्वजों की वह अतुल निधि वर्तमान है जिसे उपयोग में लाकर हम अपनी इस प्रशात्मक दरिद्रता का ही नाश नहीं कर सकते; किन्तु संसार के समस्त आकांक्षी प्रात्माओं को मुक्तहस्त दान देकर तृप्त भी कर सकते हैं। हमारे शास्त्र मुक्त श्रात्माओं के अनुभवों, विचारों और सन्देशों के अदय भण्डार हैं। आवश्यकता है इनके जीणोंद्वार की और उन के आधार पर आधुनिक भाषाओं में छोटे छोटे ग्रन्थों के निर्माण की। परन्तु यह तो तभी संभव है जब हमारे हृदय में उन शास्त्रों के प्रति आदर का भाव हो, उनके द्वारा प्रतिपादित मार्ग को हम अपनी उन्नति का एकमात्र सहारा समझे और उनपर ध्यान देना लौकिक दृष्टि से भी आवश्यक मानलें। परन्तु आज क्या अवस्था है ?
भाई माहब श्रापको हँसी आवेगी लेकिन इतने शास्त्र सुने कि पूरे ४०, ४५ वर्ष सुनते हो गए, परन्तु अभीतक यह भी मालूम नहीं पड़ा कि जो शास्त्र जी बाँच रहे हैं, उनका नाम क्या है। यदि कभी पंडित जी पूछ बैठते हैं कि कहो साहब ! कल क्या पढ़ा गया था और आज क्या पढ़ा गया है, तो हम सुनकर हँस देते हैं और झट कह देते हैं कि पंडित जी इनकी तो हमें कुछ भी खबर नहीं है। अब श्राप ही बताइये हमारा परलोक कैसे सुधरेगा।"
परलोक ही नहीं प्रात्मबल, आत्मगौरव और अात्मचिन्तन को भूल कर आज हम इस लोक में भी बिगड़ते जा रहे । श्रात्म-धर्म की हानि का एक विशेष कारण भी है। कुमार जी द्वारा तथ्य की सूक्ष्म अनुभूति देखिए:
"यदि शास्त्रों के स्वाध्याय से व किसी कारण से किसी का चित्त संसार से उदास भी हुमा और शान तथा वैराग्य के सन्मुख भी हुश्रा तो उसको कोई स्थिर करने वाला व दिलासा देनेवाला व उसके विचार को सराहने वाला नहीं मिलता है, जिससे"""""उसका वैराग्य क्षणस्थायी रहकर