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________________ श्री बा० देवकुमार : जीवन और विचारधारा किरण १] सदा के लिए अन्त हो जाता है। यह उनलोगों की कहानी है जो लंबे तिलक से श्रभूषित होकर धार्मिक कृत्यों की पहली पंक्ति मैं उचकते हुए देखे जाते हैं। आधुनिक यान्त्रिक सभ्यता को मानवता का चरम विकास मानने वाले सुमभ्य नवयुवकों के लिए तो ये ग्रन्थ पुरातत्ववेत्ताओं के लिए ही उपयोगी हैं और ऐसे व्यक्ति चिड़ियाखानों में सुशोभित होने योग्य । कुमार जी धर्म के सामाजिक महत्व से पूर्णतः अवगत थे उनका विचार था कि धर्मरक्षा के लिए किसी धर्मावलंबी की सामाजिक एकता भी आवश्यक है अन्यथा उस धर्म का भी नाश होने लगता है । धर्म प्रचार के लिए ईसाई मिशनरियों की पद्धति का प्रयोग इस युग के अनुकूल समझते थे । धर्मोपदेशकों की योग्यता के विषय में उनके विचार हम जान चुके हैं। उसके अतिरिक्त वे कहते हैं: "यदि हमारे जैनधर्म की भी पुस्तकें छोटी छोटी लिखकर इस प्रकार पढ़े लिखे लोगों में बाँटी यँ तो जिनधर्म का महत्व सर्व साधारण पर प्रकट हो जाय ।" पैर-धर्म के प्रति इनके विचारों का सार 'जैन गजट' में प्रकाशित एक सूचना में मिल जाता है: "बड़े दिनों की तातीलों में उस धर्म की सभा होगी जो धर्म संसारी जीवात्माओं को परमात्मा बना देने के मार्ग का निरूपण करने वाला है ।" स्पष्ट है कि इस धर्म के प्रधान तत्व विश्वबन्धुत्व और कर्मयोग पर इनका अटूट विश्वास था । अपने धर्म के प्रति एकनिष्ठा रखते हुए भी कुमार जी सांप्रदायिकता की मनोवृत्ति से लिप्त न थे। उनका कथन है कि- ३६ 66......... .... निष्कारण कटाक्ष रूप वचनों की वर्षा अन्य मतों पर करना छोड़ कर न्याय और योग्यता को अपने हृदय का हार बनावे, जिससे जगत में लज्जित न होना पड़े । " परन्तु अपने धर्म की मर्यादा भंग करने वाली कोई भी घटना सुन कर ये उबल पड़ते थे । पालीताना के ठाकुर साहब एकबार जूता पहने एक जैन मन्दिर में प्रवेश कर गये । इस घटना की श्रालोचना करते हुए ये निर्भीकता पूर्वक कहते हैं: .......... जैनी क्या कोई भी धर्मावलंबी अपने देवालय में किसी को जूता पहन कर नहीं जाने "श्रीमान को उचित है कि देशमात्र के धर्मों का गौरव बनाये रखें।” देगा | मानव धर्म का सम्यक विकास करने के लिए उत्कृष्ट साहित्य का विकास भी श्रावश्यक हैं क्योंकि इसी के माध्यम से हम अपने पूर्वजों के विचार जान सकते हैं और अपने जीवन में उनका उपयोग कर सकते हैं। कुमार जी ने इस युग की प्रचलित भारतीय भाषा हिन्दी का पक्ष ग्रहण
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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