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किरण १j
श्री बा० देवकुमार : जीवन और विचारधारा
गीत गाते हुए लजा का अनुभव नहीं करते। देश में औद्योगिक विकास के सम्बन्ध में इनके विचारों का सारांश हम पहले ही जान चुके हैं। विदेशों में स्वावलम्बन को कितना महत्व दिया जाता है और इस भवना को राष्ट्र के भावी कर्णधारों में किस प्रकार बैठा दिया जाता है इस पर दृष्टिपात करते हुए वे कहते हैं___ "अमेरिका में लोग अपने पुत्रों को स्वपोषण (Self help) का नियम सिखाने के वास्ते उनको श्राप खाना कपड़ा नहीं देते हैं बल्कि वे खुद मिहनत करके पैदा करते और कालिजों में विद्यालाभ करते हैं। .......... पर खेद है हमारे लड़के पाराम की कोठरी में बैठकर विद्या प्राप्ति करना चाहते हैं। भला कही मसनद की गद्दी पर बैठकर तप होता है ?" ___ क्या हमने कभी यह विचार करने की चेष्टा की है कि हमारा झूठा सन्तान-प्रेम स्वयं उसके भावी जीवन को कष्टदायक बना देता है और देश को निकम्मी जनसंख्या से भर देता है ?
बंगालियों ने जब स्वदेशी आन्दोलन का प्रचार करने के लिए सभाओं का आयोजन किया तो ये कहते हैं
“ऐसी सभा स्थान २ नगर २ और गाँव २ में होनी चाहिये कि भारत के व्यापार, शिल्प, कला-कौशल आदि की उन्नति हो। हमारे जैनी भाइयों को भी देश की भलाई में सम्मिलित होना चाहिए"।
अंग्रेजी सरकार के प्रति विद्रोह का प्रथम विस्फोट बंग-भंग के विरोध में मिलता है। उस समय कुमार जी शतशः जनता के पक्षपाती रहे। उनके शब्दों से कितनी दूरदर्शिता टपक
"इस प्रकार प्रजा की पुकार पर ध्यान न देना एक भारी राजनैतिक भूल है और बुरे परिणामों से खाली नहीं है"।
परन्तु वे किसी भी राष्ट्रीय अन्दोलन में नीति का भंग करना उचित नहीं समझते थे। उपदेश देकर सरलता से काम निकलने में उन्हें विश्वास था। परन्तु समाज, राष्ट्र ओर संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझने और तदनुसार कार्य में तत्पर होने की क्षमता हममें उसी समय आ सकती है जब हम अपने धर्म को समझले अर्थात् विचारने और कार्य करने की उस प्रणाली को हृदयङ्गम करलें जो देश, काल और अवस्था के अनुकूल हमारी मौलिक प्रकृति से सामअस्य रखती हो । सामाजिकता मनुष्य की मौलिक प्रकृति है और मस्तिष्क उसकी सबसे बड़ी विशेषता। इसीलिए निःस्वार्थ कर्म और दूरदर्शिता मानवधर्म के अभिन्न अंग हैं। जैन धर्म के इस गूढ तत्व ने कुमार जी को आकर्षित कर लिया था। जिसे उन्होंने बड़े सरल शब्दों में व्यक्त भी किया है
ऋषियों के वाक्यों पर....ध्यान दीजिए। वे कहते हैं, हे भव्य जीवों! संसार के