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________________ किरण २] बृहत्तर भारत में जैन संस्कृति के प्रभाव की खोज १०३ श्री विजय (नुमात्रा), जावा आदि में जैन संस्कृति के प्रभाव को खोजने का सफल प्रयत्न किया जा सकता है, यथा (२) कम्बोज के सर्व प्रथम भारतीय राज्य वंश के मूल में नागनागि सम्बन्ध होना, जिनका कि बहुल वर्णन प्राचीन जैन माहित्य में मिलता है। (२) तहे पीय अनुति उस वंश का संस्थापक मूल पुरुप को डन्य नामक ब्राह्मण को बनाती है, प्रथम राता ई० के लगभग भारतवर्ष से अाया था, ४ थी शाब्दी के लगभग एक दूसरा कारिड य वहाँ पहें ना प्रौर उसने उक्त देश का पूर्णतः भारतीयकरण करा दिया। कदंव बाद नरेशी के प्रांगलबा ने ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत के पूर्वी भाग में प्राचीन काल में कागिन्य एक प्रसिद्ध गोत्र था। उस काल में यह भाग जैन धर्म में अत्यधिक प्रभावित था। जैन वैद्यपि उदित्य ने अपने कल्याण कारक नामक प्रसिद्ध वैद्यक ग्रन्थ के हिनाहिताध्याय में नम्राट अमाघ वर्ष प्रथम (१५-७० ई०) की ग सभा में ममहार निषेत्र पर जो महत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिया, उममें इन्होंने अपने पूर्व यती उन दयालु पाईन वैद्यपियों में जो खान-पान में ही नई; या पाच याद में नी मगादक का प्रयोग निषिद्ध मानने थे, काशिडल का नाम सादर म्ममा किया है। यार ब्रह्म पूनि ने अपने प्रतिष्ठा तिलक' (१३ वी शतः ई०) में अपने रिता व पांडन (लाभग २०० ई.) के पाराइब देश से अपने जिन गात्र बन्धुत्रों के माथ जैन धर्मावलम्बी हो यमल पास में प्राकर बनने का उल्लेख किया है उनमें काण्डन गोत्र का भी नाम है। (३) इन मारतीय उरन यस में मद्यनामादि के आहार पान का प्रचार नहीं था, वहाँ के निवासी प्रधाननः शाकाहारादिक के नायडू ने उल्लेख मिलते हैं उनमें भी पशुमाल देना प्राय:करके नहीं पाया जाला । (1) इन देशों में सन यान बुद्ध शब्द पवावधान माने जाते हैं। (1) वहाँ से प्राप्त प्रचीन युद्धभूमियां भारतीय बुद्ध तियो से कुछ भिन्न हैं शोर साहर भूतियों के साथ बिलता सादा रचना है। डा. चटकों को उपक पुस्तक के मुख्य पृष्ठ पर दिये चित्र में जा नथाकथित बुद्ध मूर्ति है वह मुन्वागन से निप्टो ध्यान मुद्रा, नासान दृष्टि, गोद में बोई होली पर हाथी !! ---- ठीक अहन प्रतिमाओं की नाई यी है। कोई वस्त्र यज्ञोपवीत भी नहीं है पद नागावलि पर ग्रामीन है जिसका फ.ए संभवतः पीट के पीछे से होकर शिर पर छत्र किये हुए था --- यः उपरिम भाग खंडित है। (६) लगभग नयाँ शताब्दी के एक शिलालेख में भगवान पाशनाथ का उल्लेख है, माथ ही जैनग्रन्थ कल्याणकारक का भी जिसे कि लोक कल्याण करने वाला बताया है ! (७) ६ ठी व सातवीं शती के एक शिलालेख में शिवपद' का विचित्र एवं कुछ अलङ्कारिक
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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