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भास्कर
[भाग १७
विद्वानों का ही विशेष भाग है, अथवा उनका अनुसरण करने वाले भारतीय पुराविदों ने भी केवल बौद्ध एवं हिन्दू धमों की ही दृष्टि से उपरोक्त अध्ययन किये और अपने निष्कर्ष निकाले । यद्यपि उक्त अध्ययन के प्रख्यात विशेषज्ञ प्रा. सिलबनलेवी के अनुमार जावा अादि में जैन धर्म के प्रभाव के पयांत प्रमाण मिलते हैं, इस दिशा में प्रायः किसी भी विद्वान ने अभीतक काई स्वतन्त्र अथवा विशिष्ट अन्वेषण नहीं किया ।
किन्तु जब हम यह देखते हैं कि बृहत्तर भारत का यह निर्माण अथात् भारत के निकटस्थ इन देशों एवं दीपादिका में भारतीय संस्कृति का प्रवेश, प्रभाव एवं प्रसार विशेष रूप से सन् ईत्वी के प्रथम सह याद में हुआ और यह वह समय था जबकि स्वयं भारतवर्ष में बौद्ध धर्म शीघ्रता के साथ नाम शेष होता जा रहा था, तथा जैनधर्म कणाटक, महाराष्ट्र और तुलु एवं तामिल देशों में ही नहीं वरन् ग्रान्ध, कलिग, गुजरात ग्रार मध्य भारत में भी, अथात् भारतवर्ष के लगभग तीन चौथाई भाग में अपने सर्वनामुखी चरमका को प्राप्त हो रहा था जबकि कई महान सम्राट् , छोटे बड़े अनेक नरेश, अनगिनत सामन्त, सदार, सेनानी और याद्वा थल और जल के व्यापारी, धनिक श्रेष्ठ और चतुर शिल्पी, तथा विभिन्न वाँध बहुभाग जनसाय रगा भी उनके अनुयायी थे. अनेक महान विद्यापीठों से देश की अधिकांशत: लोक शिक्षा की वह व्यवस्था कर रहा था, असंख्य निर्धन्य श्रमण संघ तथा अनेक उजट विद्वान एवं दिग्गज प्राचार्य धर्म प्रचार, लोक कल्याण, साहित्य-म जन प्रादि के द्वारा सांस्कृतिक अभिवृद्धि कर रहे थे, तो बड़ा अाश्चर्य होता है कि क्या ऐसे समय में भी जैनधर्म ने उसी समय में होने वाले बृहत्तर भारत के निर्माण में प्रार उसकी संस्कृति का प्रावन करने में कोई भी भाग नहीं लिया? प्राचीन जैन कथा मादित्य, पुराना र चरत्र ग्रन्या में जनधमा माइनी वी और बाकी के समुद्र यात्रा करके दूरस्य दोष द्वागन को पाने जाने के उल्लेख भरे पड़े हैं। उनमेजन द्वामी के नाम जोकर्णन अाये हैं इनमें से अनेकों को भीडा प्रयास कर के श्रान भी चीन्हा जा सकता है। इन यात्रा विवरणों में अनेक एतिहानिक भी हो सकते हैं: जैन कर धनरल ना तिलकमंजरी में वर्णि। एक ऐने ई म मुद्रो अाक्रमण को प्रसिद्ध परातर्यावद डा० मानी चन्द्र ने एक नाभिक घटना का मजीव वर्गन अनुमान किया है। इन द्वीपादिकों के निवासियों का प्रचीन जैन पुरागादि अन्धो में विद्याधर जाति का माना है और यहाँ की प्राचीन अनुनय मी इस विद्याधर जाति को नाग, ऋक्ष, यक्ष, गंधर्व श्रादि उपजातियों के माथ उन प्रदेशों का मन मम्बन्ध सिद्ध करती हैं।
अभी हाल में ही बृहत्तर भारत सम्बन्धी कुछ माहिल्य का अध्ययन कर रहा था, विशेष रूप में डा० विजनराज चपाध्याय की गहन्यपूर्ण पुस्तक 'कम्बोज में भारतीय संस्कृति का प्रभाव' (अंग्रेजी) का; उससे पता चला कि कई ऐसे संकेत दण्ड है जिनके द्वारा अन्वेषण करने से कम्बोज,