________________
१०४
भास्कर
[ भाग १७
वर्णन है ।
इस शब्द और इनके वर्णन में जैन संस्कृति की छाप स्पष्ट प्रतीत होती है ।
(८) ६ ठी ७ वीं शताब्दी के कुछ शिलालेखों का मङ्गलाचरण एक निराले प्रकार का अध्यात्म पूरित है । उनमें वैशन्त की झलक है । श्रस्तु वेदान्त के प्रणेता शंकराचार्य के जन्म से लगभग एक शताब्दी पूर्व के इन अभिलेखों में वेदान्त के वजाय जैन अध्यात्म की छाप अधिक सफलता पूर्वक खोजी जा सकती है ।
(६) उक्त प्रदेशों में रामायण और महाभारत का बहुल प्रचार और इन कथानकों का जो रूप प्रचलित है उसका जैन रूप साथ अधिक सादृश्य ।
(१०) वहाँ के प्राचीन मंदिरादिकों के द्वारों में उत्कीर्ण प्रस्ताङ्कों में जैन पुराणों में वर्णित दृश्यावलियों की खोज ।
(११) वहाँ के शिल्प, स्थापत्य एवं मूर्तिकला पर जैन कला का प्रभाव |
(१२) वहाँ की प्रचलित लोक कथाओं की जैन साहित्य में खोज ।
(१३) हिन्दू संस्कृति से अनोखे स्त्री जाति के विशिष्ट विकारों में जैन संस्कृति का प्रभाव । (१४) पाटलिपुत्र के मुरुड वंशी नरेशों का उल्लेख, जिनका वर्णन जैन साहित्य में ही विशेष रूप से आया है ।
(१५) उन देशों में प्रचलित वर्ष का प्रारंभ कार्तिक मास से होता है, जो कि महावीर निर्वाण के साथ प्रचलित जैन मान्यता ही है ।
(१६) दीपावलि का उत्सव, उस समय रोशनी आतिशबाजी आदि का होना, तथा रथयात्र', कलशाभिषेक आदि श्रन्य पूजोत्सवों का मनाया जाना ।
(१७) उन देशों में बहुमान्य तीन प्राचीन वर्गों में बौद्ध भिक्षुत्रों तथा हिन्दू, शैवों के अतिरिक्त जिन 'पंथी' या पंडितों का उल्लेख है; जो बड़े विद्वान, व्यवहार कुशल तथा उच्च पदों पर आसीन होते थे, क्या जैन थे इत्यादि ।
ये कतिपय दिशा निर्देश हैं। प्रस्तुत लेख का प्रयोजन कोई खोज शोध अनुसंधानादि न हो कर जैनाध्ययन की इस महत्त्वपूर्ण एवं उपेक्षित शाखा की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित करना मात्र ही है । इस सम्बन्ध में अपने अध्ययन के परिणाम स्वरूप विस्तृत एवं प्रामाणिक प्रकाश फिर कभी डाला जायगा ।
0:0:€€€