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________________ और चाणक्य किरण १] गर्भकाल की समाप्ति पर उस युवती ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया, और उसके (लड़की के पिता ने अद्भुत रीति से उसके दोहले की शान्ति का स्मरण करके बालक का नाम चन्द्रगुप्त रखा ' ( चन्द्रगुप्तो से नामं कयं ) । ग्राम के अन्य बालकों के बीच चन्द्रगुप्त शनैः शनैः वृद्धि को प्राप्त हुआ। वह बड़ा होनहार, सर्व राज्योचित लक्षणों और चिन्हों से युक्त था। अपने श्रेष्ठतर व्यक्तित्व के प्रभाव से वह बालपन से ही अपने साथी बालकों पर शासन करने लगा और सब खेतों में उनका अगुआ और नेता बनने लगा । बहुत समय के उपरान्त चाणक्य का फिर से उस ग्राम में आगमन हुआ । इस बीच में चन्द्रगुप्त स्वर्ग में जन्म लेते हैं और वहाँ एक कल पर्यन्त स्वर्ग सुख का उपभोग करते हैं । इस ग्रन्थ में ब्राह्मण परिवाजको से क्षत्रिय परिव्राजको को भिन्न कहा है और उनके सात भेद किये —सांख्य कापिल्य, भार्गव, योगी, हंस, परमहंस, बहूदक, कुटिव्रत, कृष्ण परिव्राजक ( अवश्य - ७ व ८१) कुछ ग्रन्थों में स्त्री पत्रिकाओं का भी उल्लेख है जो दार्शनिक गोष्टियों में होने वाले वादों में योग देकर देश के वीक जीवन में भी भाग लिया करती थीं । रामायण (अरण्यकांड ४६, २-३ ) में इन परिव्राजकों की वेष भूषा आदि का अच्छा वर्णन हुआ है । किन्तु ब्राह्मणेतर परिवाजकों की वेषभूषा उससे भिन्न होती थी, उनमें भी दिगम्बर (अचलक अथवा नग्गा चरिश्रा) परिव्राजक तो नम्र ही रहते थे । अर्थ शास्त्र ० ३ ० २०) के 'पति' ये बह्मणेतर परिव्राजक यथा निर्ग्रन्थ (जैन), शाक्य पुत्र (बौद्ध) - विभिन्न जाति के यहाँ तक कि चांडाल भी हो सकते थे, और सुसंगठित मुनि संघों (गण गच्छ आदि) के अन्तर्गत रहते थे, जबकि ब्रह्मण परिव्राजक ब्राहारा जातीय ही होते थे और एकाकी ही विवरण करते थे। वे संघ की अपेक्षा एकाकी जीवन को श्रात्मसाधन के लिये अधिक उपयोगी समझते थे । वैसे अनेक जैन साधु विशेष कर जिनकल्पी साधु भी एक की ही विचरण करते थे। किसी स्थान विशेष में स्थायी रूप से न रहकर निरन्तर स्थान से स्थानान्तर विहार करते रहना इन सभी प्रकार के परिवाजकों की एक विशेषता थी, क्योंकि आत्म साधन के लिये वे ऐसा करना आवश्यक मानते थे । केरल वर्षा ऋतु में वे एक ही स्थान में रहकर चातुर्मासिक योग धारण करते थे, क्योंकि उक्त ऋतु में गमनागमन करने से अनेक जीवों की हिंसा होने का भय रहता है । इनमें से प्रत्येक परम्परा के परिवाजको के चरण के नियम शात्र थे, यथा जैन श्राचारांग, बौद्ध पातिमोक्ख और ब्राह्मण भिक्षु सूत्र (राणिनी ४, ३, ११० १११ ) / 1 १ - चन्द्रगुन के वंश और पितृकुल के सम्बंध में विभिन्न अनुश्रुतियों में मतभेद है। जैन आधारों के अनुसार उसका मातामह मयूर पापको का मुखिया था । संभवतः वह इसी कारण मौर्य कहलाया । किन्तु जैन साहित्य में उसे क्षत्रिय वंशोद्भव ही कहा है । वैसे व्रात्य क्षत्रियों की एक जाति मारिय भी थी जिसके एक सदस्य सायं भगवान महावीर के एक गणधर थे । बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार चन्द्रगुप्त का पिता पिप्पलि वन के शाक्य क्षत्रियों की 'मोरिय' नामक एक उपजाति का राजा था। ब्राह्मण पुगण एवं साहित्यकारों ने उसे पात्र होने के कारण मौर्य कहलाया बताया । साथ ही मुरा के प्रा० चटर्जी ने अपने लेख की पाद टिप्पणी नं० १४ में इस मुरा नामक स्त्री का पुत्र अथवा शूद्रा होने का भी उल्लेख किया । प्रश्न पर विस्तार पूर्वक विशद
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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