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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ ११३ को प्राप्त हो है । तहां बहुरि तीसरा प्रमाद का अक्ष इद्रिय, सो पूर्वोक्त अनुक्रम करि अपने अंत भेद पर्यंन्त जाइ, बाहुडि युगपत् प्रथम स्थान कौ प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, सो दूसरा स्थान मान को छोडि, अपना तृतीय स्थान माया कौं प्राप्त होइ । तहा भी पूर्वोक्त प्रकार विधान होइ, असे क्रम ते दूसरा प्रमाद का अक्ष जब एक बार अपना पर्यन्त भेद लोभ क़ौ प्राप्त होइ, तब तीसरा प्रमाद का अक्ष इंद्रिय, सो भी क्रम करि संचार करता अपने अत भेद को प्राप्त होइ, तब बीस आलाप होइ । भावार्थ - एक - एक कषाय विषै पांच-पाच आलाप इंद्रियनि के संचार करि होइ । बहुरि ते इंद्रिय अर कषाय दोऊ ही अक्ष बाहुडि अपने-अपने प्रथम स्थान कौ युगपत् प्राप्त होइ, तब पहिला प्रमाद का अक्ष विकथा, सो पहिले बीसों आलापनि विषै अपना प्रथम स्थान स्त्रीकथा रूप, ताकौ प्राप्त था । सो अब प्रथम स्थान की छोड, अपना द्वितीय स्थान भक्तकथा कौ प्राप्त होइ । बहुरि इस ही अनुक्रम करि पूर्वोक्त प्रकार तृतीय, द्वितीय प्रमाद का अक्ष इंद्रिय अर कषाय, तिनिका अपने अंत पर्यन्त जानना । बहुरि बाहुडना इनि करि प्रथम प्रमाद का प्रक्ष विकथा, सो अपना तृतीयादि स्थानकनि को प्राप्त होइ, औसा सचार जानना । भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार एक-एक विकथा भेद विषे इद्रिय - कषायनि के पलटने तै बीस आलाप होइ, ताके चारों विकथानि विषै असी श्रालाप हो है । यहु अक्षसंचार का अनुक्रम ऊपरि अंत का भेद इंद्रिय का पलटन तै लगाय क्रम ते अधस्तन पूर्व-पूर्व क्ष का परिवर्तन को विचारि पलटना, असे अक्षसचार कह्या । अक्ष जो भेद, ताका क्रम ते पलटने का विधान असे जानना । आगे नष्ट ल्यावने का विधान दिखावे है - सगमाणेहिं विभत्ते, सेसं लक्खित्तु जारण अक्खपदं । लद्धे रूवं पक्खिव, सुद्धे अंते रंग रूवपक्खेओ ॥ ४१ ॥ स्वमानैविभक्ते, शेषं लक्षयित्वा जानीहि प्रक्षपदम् । लब्धे रूपं प्रक्षिप्य शुद्धे अंते न रूपप्रक्षेपः ॥४१॥ टीका - कोऊ जेथवां प्रमाद भंग पूछे, तीहि प्रमाद भंग का श्रालाप की खबर नाही, जो यहु आलाप कौन है, तहा ताकौ नष्ट कहिए । ताके ल्यावने
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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