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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
टीका - मिथ्या कहिए अतत्त्वगोचर है दृष्टि कहिए श्रद्धा जाकी, साणं मिथ्यादृष्टि है । 'नाम्न्युत्तरपदश्च' असा व्याकरण सूत्र करि दृष्टिपद का लोप करते 'मिच्छो' असा कह्या है । यहु भेद आगे भी जानना ।
बहरि आसादन जो विराधना, तिहि सहित वर्ते सो सासादना, सासादना है सम्यग्दृष्टि जाकै, सो सासादन सम्यग्दृष्टि है । अथवा आसादन कहिए सम्यक्त्व का विराधन, तीहि सहित जो वर्तमान, सो सासादन । बहुरि सासादन अर सो सम्यग्दृष्टि सो सासादन सम्यग्दृष्टि है । यहु पूर्वं भया था सम्यक्त्व, तिस न्याय करि इहा सम्यग्दृष्टिपना जानना।
बहुरि सम्यक्त्व अर मिथ्यात्व का जो मिश्रभाव, सो मिश्र है ।
बहुरि सम्यक् कहिए समीचीन है दृष्टि कहिए तत्त्वार्थश्रद्धान जाकै, सो सम्यग्दृष्टि अर सोई अविरत कहिए असंयमी, सो अविरतसम्यग्दृष्टि है ।
बहुरि देशत कहिए एकदेश तै विरत कहिए सयमी, सो देशविरत है, सयतासयत है, असा अर्थ जानना ।
इहा जो विरत पद है, सो ऊपरि के सर्व गुणस्थानवर्तीनि के सयमीपना को जनावै है । बहुरि प्रमाद्यति कहिये प्रमाद करै, सो प्रमत्त है । बहुरि इतर कहिए प्रमाद न करै, सो अप्रमत्त है ।
बहुरि अपूर्व है करण कहिए परिणाम जाकै, सो अपूर्वकरण है ।
बहुरि निवृत्ति कहिए परिणामनि विष विशेष न पाइए है निवृत्तिरूप करण कहिए परिणाम जाकै, सो अनिवृत्तिकरण है ।
बहुरि सूक्ष्म है सापराय कहिये कषाय जाकै, सो सूक्ष्मसापराय है । बहुरि उपशांत भया है मोह जाका, सो उपशातमोह है । बहुरि क्षीण भया है मोह जाका, सो क्षीणमोह है ।
बहुरि घातिकर्मनि को जीतता भया, सो जिन, बहुरि केवलज्ञान याकै है यातै केवली, केवली सोई जिन, सो केवलिजिन, बहुरि योग करि सहित सो सयोग, सोई केवलिजिन, ऐसे सयोगकेवलीजिन है।