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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ९-१० ६६] मिथ्यात्वादिक परिणाम, तिनकरि गुण्यंते कहिए लखिए वा देखिए वा लांछित करिए जीव, ते जीव के परिणाम गुणस्थान संजा के धारक है, असा सर्वदर्शी जे सर्वजदेव, तिनकरि निर्दिष्टाः कहिए कहे है । इस गुण शब्द की निरुक्ति की प्रधानता लीए सूत्र करि मिथ्यात्वादिक अयोगकेवलीपना पर्यन्त ये जीव के परिणाम विशेष, तेई गुणस्थान है, असा प्रतिपादन कीया है ।
तहा अपनी स्थिति के नाश के वश ते उदयरूप निपेक विपै गले जे कार्माण स्कंध, तिनका फल देनेरूप जो परिणमन, सो उदय है । ताकी होते जो भाव होइ, सो औदयिक भाव है।
वहुरि गुण का प्रतिपक्षी जे कर्म, तिनका उदय का अभाव , सो उपशम है। ताकी होते संते जो होय, सो औपशमिक भाव है।
बहुरि प्रतिपक्षी कर्मनि का वहुरि न उपजै असा नाश होना, सो क्षय; ताकी होते जो होड, सो क्षायिक भाव है।
वहुरि प्रतिपक्षी कर्मनि का उदय विद्यमान होते भी जो जीव के गुण का अश देखिए, सो क्षयोपशम ; ताकी होते जो होइ, सो क्षायोपशमिक भाव है।
बहुरि उदयादिक अपेक्षा ते रहित, सो परिणाम है; ताकी होते जो होइ, सो पारिणामिक भाव है । जैसे औदयिक आदि पंचभावनि का सामान्य अर्थ प्रतिपादन करि विस्तार ते प्रागै तिनि भावनि का महा अधिकार विर्ष प्रतिपादन करिसी।
आग ते गुणस्थान गाथा दोय करि नाममात्र कहै हैमिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो य देसविरदो य। . विरदा पमत्त इदरो, अपुत्व अणियट्टि सुहमो य ॥६॥ उवसंत खीणमोहो, सजोगकेवलिजिणो अजोगी य । चउदस जीवसमासा, कमेण सिद्धा य रणादव्वा ॥१०॥ मिथ्यात्वं सासनः मिश्रः, अविरतसम्यक्त्वं च देशविरतश्च । विरताः प्रमत्तः इतरः, अपूर्वः अनिवृत्तिः सूक्ष्मश्च ॥९॥ उपशांतः क्षीणमोहः, सयोगकेवलिजिनः अयोगी च ।
चतुर्दश जीवसमासाः, क्रमेण सिद्धाश्च ज्ञातव्या ॥१०॥ 'द टागम यवना पुग्नक १, पृष्ठ १६२ मे २०१ तक, मूत्र ६ से २३ तक ।