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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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बहुरि अठारहवां कोठा विषे संज्ञी, तहां संज्ञी प्रसंज्ञी की असी सं । त्र । सहनानी है ।
बहुरि उगणीसवा कोठा विषे आहार, तहां आहार - अनाहार की असी आ । अन । सहनानी है |
बहुरि बीसवा कोठा विषै उपयोग, तहां ज्ञानोपयोग - दर्शनोपयोग की जैसी ज्ञा । द । सहनानी हैं । जैसे इन सहनांनीनि करि यंत्रनि विषं कहिए है अर्थ सोनीकेँ जानना ।
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बहुरि जहां गुणस्थानवत् वा मूलौघवत् भैसा कह्या होइ, गुणस्थान वा सिद्ध रचना विषै जैसे प्ररूपणा होइ, तेसै यथसंभव जानना । बहुरि और भी जहां जिसवत् ह्या होइ, तहा ताके समान प्ररूपणा जानि लेना । तहां जो किछू जिस कोठा विष विशेष का होइ, सो विशेष जानि लेना । बहुरि जहां स्वकीय जैसा कह्या होइ, तहां जिसका प्रलाप होइ, तहां तिस विषै संभवती प्ररूपणा वा जिसका आलाप कीजिए, सोही प्ररूपणा जान लेना । बहुरि इतना कथन जानि लेना
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सव्वेंस सुहमाणं, काऊदा सव्वविग्गहे सुक्का ।
सव्वी मिस्सो देहो, कओदवण्णो हवे णियमा ॥१॥
इस सूत्र करि सर्व पृथ्वीकायादिक सूक्ष्म जीवनि के द्रव्यलेश्या कपोत है । विग्रहगति संबंधी कार्माण विषै शुक्ल है । मिश्र शरीर विषै कपोत है । जैसे अपर्याप्त श्रालापनि विषे द्रव्यलेश्या कपोत अर शुक्ल ही जानि लेना ।
बहुरि द्वितीयादि पृथ्वी का रचना विषै लेश्या अपनी अपनी पृथ्वी विषे संभवती स्वकीय जाननी ।
बहुरि मनुष्य रचना विषै प्रमत्तादिक विषै तीन भेद भाव अपेक्षा हैं । द्रव्य अपेक्षा एक पुरुषवेद ही है । बहुरि सप्तमादि गुणस्थाननि विषै आहार सज्ञा का प्रभाव, साताअसातावेदनीय की उदीरणा का अभाव ते जानना । बहुरि स्त्री, नपुंसक वेद का उदय होते आहारकयोग, मन पर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम न होइ, अंसा जानना । वहुरि श्रेणी ते उतरि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी चतुर्थादि गुणस्थानकनि ते मरि देव होइ, तोहि अपेक्षा वैमानिक देवनि के अपर्याप्तकाल विषै उपशम सम्यक्त्व का है ।