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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका j .
[ ७५९ मनःपर्यय के सात है। केवलज्ञान के दोय है । असंयम के च्यारि है। देशसयम के एक है। सामायिक, छेदोपस्थापना के च्यारि है । परिहार विशुद्धि के दोय है। सूक्ष्मसांपराय के एक है। यथाख्यात चारित्र कै च्यारि है । चक्षु, प्रचक्षु दर्शन के बारह है । अवधि दर्शन के नव है। केवल दर्शन के दोय है। कृष्ण, नील, कपोत लेश्या के च्यारि है । पीत पद्म के सात है । शुक्ल के तेरह है । भव्य के चौदह हैं। अभव्य कै एक है । मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र के एक एक है । द्वितीयोशम सम्यक्त्व के आठ है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व अर वेदक के च्यारि है । क्षायिक के ग्यारह है। संज्ञी के बारह है । असंज्ञी कै एक है । आहारक के तेरह है। अनाहारक के पांच है। असे ए गुणस्थान कहे, तिन गुणस्थाननि विर्षे आलाप मूल में जैसे सामान्य गुणस्थाननि विर्षे अनुक्रम करि आलाप कहे थे, तैसे ही जानने ।
गुणजीवा पज्जत्ती, पारणा सण्णा गइंदिया काया। जोगा वेदकसाया, णारगजमा दंसरणा लेस्सा ॥७२॥
भव्वा सम्मत्ता वि य, सण्णी आहारगा य उवजोगा । • जोग्गा परूविदव्वा, ओघावेसेसु समुदायं ॥७२६॥ जुम्मं ।
गुणजीवाः पर्याप्तयः, प्राणाः संज्ञाः गतींद्रियाणि कायाः। योगा वेदकषायाः, ज्ञानयमाः दर्शनानि लेश्याः ॥७२५॥ भव्याः सम्यक्त्वान्यपि च, संजिनः आहारकाचोपयोगाः ।
योग्याः प्ररूपितव्या, ओघादेशयोः समुदायम् ॥७२६।। युग्मम् । टीका - गुणस्थान चौदह, मूल जीवसमास चौदह, तहां पर्याप्त सात, अपयप्ति सात, पर्याप्ति छह, तहां सज्ञी पचेंद्रिय के पर्याप्ति अवस्था विप पर्याप्ति अयस्था संबधी छह अर अपर्याप्ति अवस्था विष अपर्याप्त संबंधी छह, असशी वा विकलत्रय के पर्याप्ति-अपर्याप्ति सबधी पांच-पांच, एकेद्री के च्यारि-च्यारि जानने ।
प्राण - सज्ञी पचेद्रिय के दश, तीहि अपर्याप्त के सात, अनजी पचंद्री के नव तीहि अपर्याप्त के सात, चौइन्द्री के पाठ, तीहिं अपर्याप्त के छह, तन्न्त्री के नात, तीहिं अपर्याप्त के पांच, वेइन्द्री के छह, तीहिं अपर्याप्त के च्यारि, एनंदिन के न्यारि, तीहि अपर्याप्त के तीन है। सयोग केवलो को वचन, काय, उस्वास, या परि