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सम्यग्नानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[७३६ टीका - लेश्यामार्गणा विष कृष्णादिक अशुभ तीन लेश्याए हे। ते स्थावर मिथ्यादृष्टी आदि असंयत पर्यंत है । तहा जीवसमास चौदह है। बहुरि तेजोलेश्या अर पद्मलेश्या सैनी मिथ्यादृष्टी आदि अप्रमत्त · पर्यत है। तहा जीवसमास सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोय है । • गवरि य सुक्का लेस्सा, सजोगिचरिमो त्ति होदि णियमरण । गयजोगिम्मि वि सिद्धे, लेस्सा 'पत्थि ति णिद्दिठं ॥६६॥
नवरि च शुक्ला लेश्या, सयोगिचरम इति भवति नियमेन ।
गतयोगेऽपि च सिद्धे, लेश्या नास्तीति निर्दिष्टम् ॥६९३॥ टीका - शुक्ललेश्या विष विशेष है, सो कहा ? शुक्ललेश्या सैनी मिथ्यादृष्टी आदि सयोगी पर्यंत है । तहां जीवसमास सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोय है नियम करि; जातें केवलसमुद्घात का अपर्याप्तपना इहां अपर्याप्त जीवसमास विप गभित है । बहुरि अयोगी जिन विष वा सिद्ध विष लेश्या नाही, असा परमागम विप कह्या है।
थावरकायप्पहुदी, अजोगिचरिमो त्ति होंति भवसिद्धा। मिच्छाइट्ठिट्ठाणे, अभव्वसिद्धा हवंति ति ॥६६४॥
स्थावरकायप्रभृति, अयोगिचरम इति भवंति भवसिद्धाः।
मिथ्याष्टिस्थाने, अभव्यसिद्धा भवंतीति ॥६६४॥ टीका - भव्यमार्गणा विष भव्य सिद्ध है, ते स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी आदि अयोगी पर्यत है। अर अभव्यसिद्ध एक मिथ्यादृप्टी गुणस्थान विप ही है । इनि दोऊनि विषै जीवसमास चौदह-चौदह है।
मिच्छो सासणमिस्सो, सग-सग-ठाणम्मि होदि अयदादो। पढमुवसमवेदगसम्मत्तदुगं अप्पमत्तो ति ॥६६॥
मिथ्यात्वं सासनमिश्री, स्वकस्वकस्थाने भवति अयतात् ।
प्रथमोपशमवेदकसम्यक्त्वद्विकमप्रमत्त इति ॥६६॥ टीका - सम्यक्त्वमार्गणा विपै मिथ्यादृष्टी, सासादन, मित्र ए तीन तो अपने-अपने एक-एक गुणस्थान विप हैं। बहुरि जीवसमास मिश्यादृष्टी विणे नो