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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६९१-५१२
संयत गुणस्थान विषे ही है । तहां जीवसमास एक सैनी पर्याप्त है । बहुरि सामायिक छेदोपस्थापना संयम प्रमत्तादिक अनिवृत्तिकरण पर्यंत च्यारि गुणस्थानन विषै है । तहां जीवसमास संज्ञी पर्याप्त अर आहारक मिश्र अपेक्षा अपर्याप्त ए दोय हैं । बहुरि परिहारविशुद्धि संयम प्रमत्त अप्रमत्त दोय गुणस्थाननि विषै ही है । तहां जीवसमास एक सैनी पर्याप्त हैं; जातें इस सहित आहारक होइ नाही । बहुरि सूक्ष्मसांपराय संयम सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान विषै ही है । तहां जीवसमास एक सैनी पर्याप्त है । वहुरि यथाख्यात संयम उपशांतकषायादिक च्यारि गुणस्थाननि विषै है । तहां जीवसमास एक सैनी पर्याप्त अर समुद्घात केवली की अपेक्षा अपर्याप्त ए दोय हैं । बहुरि सिद्ध विषै संयम नाहीं है, जाते चारित्र है, सो मोक्ष का मार्ग है, मोक्षरूप नाहीं है, जैसे परमागम विषै कह्या है ।
चउरक्खथावराविरवसम्मादिट्ठी दु खीणमोहो त्ति । चक्खु चक्खू - ओहो, जिणसिद्धे केवलं होदि ॥ ६६१॥
चतुरक्षस्थावराविरतसम्यग्दृष्टिस्तु क्षीरणमोह इति । चक्षुरचक्षुरवधिः, जिनसिद्धे केवलं भवति ॥ ६९१ ॥
टीका - दर्शनमार्गणा विषे चक्षुदर्शन है । सो चौइंद्री मिथ्यादृष्टी आदि क्षीणकषाय पर्यंत बारह गुणस्थान विषै है । तहां जीवसमास चौइद्री, सैनी पंचेद्री श्रसौनी पंचेंद्री पर्याप्त वा अपर्याप्त ए छह है । बहुरि प्रचक्षु दर्शन स्थावरकाय मिथ्या दृष्टी यादि क्षीणकषाय पर्यंत बारह गुणस्थान विषै हैं । तहां जीवसमास चौदह है । बहुरि अवधि दर्शन असंयतादि क्षीणकषाय पर्यंत नव गुणस्थान विपै है । तहां जीवसमास सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त दोय है । बहुरि केवलदर्शन सयोग - प्रयोग दोय गुणस्थान विपै है । तहां जीवसमास केवलज्ञानवत् दोय है अर सिद्ध विषे भी केवल दर्शन है |
थावर काय पहुदी, अविरदसम्मो त्ति असुह-तिय-लेस्सा | सणीदो अपमत्तो, जाव दु सुहतिण्णिलेस्साओ ॥ ६६२ ।।
स्थावर कायप्रभृति, अविरतसम्यगिति अशुभत्रिकलेश्याः । संज्ञितोऽप्रमत्तो यावत्तु शुभास्तिस्रो लेश्याः ।। ६९२॥