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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ६७६ आगें इहां जीवनि की संख्या कहैं हैं - णाणुवजोगजुदाणं, परिमाणं णाणमग्गणं व हवे । दसणुवजोगियाणं, सणमग्गण व उत्तकमो ॥६७६॥
ज्ञानोपयोगयुतानां परिमाणं ज्ञानमार्गणावद्भवेत् ।
दर्शनोपयोगिनां दर्शनमार्गणावदुक्तक्रमः ॥६७६॥ टीका - ज्ञानोपयोगी जीवनि का परिमाण ज्ञानमार्गणावत् है । बहुरि दर्शनोपयोगी जीवनि का परिमाण दर्शनमार्गणावत् है। सो कुमतिज्ञानी, कुश्रुतज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, केवलज्ञानी, बहुरि तियंच-विभंगज्ञानी, मनुष्य-विभंगज्ञानी, नारक-विभंगज्ञानी, इनिका प्रमाण जैसे ज्ञानमार्गणा विर्षे कहा है । तैसे ही ज्ञानोपयोग विषै प्रमाण जानना । किछ विशेष नाहीं । बहुरि शक्तिगत चक्षुर्दर्शनी, व्यक्तगत चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी, अवधिदर्शनी केवल दर्शनी, इनिका प्रमाण जैसै दर्शन-मार्गणा विर्षे कहा है; तैसे इहां निराकार उपयोग विषे प्रमाण जानना । किछू विशेष नाही। इति श्री आचार्य नेमिचद्र विरचित गोम्मटसार द्वितीयनाम पचसंग्रह ग्रथ की जीवतत्त्व प्रदीपिका नाम सस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचद्रिका नामा भाषाटीका विष जीवकाण्ड विपै प्ररूपित बीस प्ररूपणा तिनिविषै उपयोग-मार्गणाप्ररूपणा
नामा बीसवा अधिकार सपूर्ण भया ॥२०॥
तत्त्वनिर्णय न करने मे किसी कर्म का दोष नहीं है, तेरा ही दोप है, परतु तू स्वय तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक को लगाता है, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सभव नही है। तूझे विषय कषाय रूप ही रहना है इसलिए झूठ बोलता है। मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो ऐसी युक्ति किसलिए बनाए ? सांसारिक कार्यो मे अपने पुरुषार्थ से सिद्धि न होती जाने तथापि पुरुषार्थ उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो बैठा है, इसलिए जानते हैं कि मोक्ष को देखा-देखी उत्कृष्ट कहता है, उसका स्वरूप पहिचान कर उसे हितरूप नही जानता। हित जानकर उसका उद्यम बने सो न करे यह असभव है।
- मोक्षमार्ग प्रकाशक । अधिकार ६, पृष्ठ-३११