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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६१३-६१५ ६६८ पुद्गलनि करि रूक्ष गुण युक्त पुद्गल बंधे है । बहुरि तिनि पुद्गलनि की दोय संज्ञा है - एक रूपी, एक अरूपी ।
तिनि संज्ञानि को कहै हैसिद्धिदरोलीमज्झ, विसरिसजादिस्स समगुणं एक्कं । रूवि त्ति होदि सण्णा, सेसाणं ता अरूवि त्ति ॥६१३॥
स्निग्धेतरावलीमध्ये, विसदृशजातेः समगुरण एकः ।
रूपीति भवति संज्ञा, शेषाणां ते अरूपिण इति ॥६१३॥ टीका - स्निग्ध-रूक्ष गुणनि की पंकति, तिनके विष विसदृश जाति कहिए । स्निग्ध के अर रूक्ष के परस्पर विसदृश जाति है, ताकै जो कोई एक समान गुण होइ ताको रूपी जैसी संज्ञा करि कहिए है । पर समान गुण बिना अवशेष रहे, तिनिकों अरूपी जैसी संज्ञा करि कहिए है।
ताही को उदाहरण करि कहैं हैदोगुणणिद्धाणुस्स य, दोगुणलुक्खाणुगं हवे रुवी। इगि-तिगुरणादि अल्वी, रुक्खस्स वि तं व इदि जाणे ॥६१४॥
द्विगुणस्निग्धाणोश्च द्विगुणरूक्षाणुको भवेत् रूपी ।
एकत्रिगुणादि. अरूपी, रूक्षस्यापि तद् व इति जानीहि ॥६१४॥ टीका - दूसरा है गुण जाकै वा दोय है गुण जाकै असा जो द्विगुण स्निग्ध परमाणू, ताकै द्वि गुण रूक्ष परमाणू रूपी कहिए, अवशेष एक, तीन, च्यारि इत्यादि गुण धारक परमाणू अरूपी कहिए। जैसे ही द्वि गुण रूक्षाणु के द्वि गुण स्निग्धाणू रूपी कहिए; अवशेष एक, तीन इत्यादिक गुणधारक परमाणू अरूपी कहिए।
णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण, लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण' । गिद्धस्स लुक्खेण हवेज्ज बंधो, जहण्णवज्जे विसमे समे वा।६१५॥
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१ 'गुणसाम्ये सदशाणाम्' तत्त्वार्थसूत्र : अध्याय-४, सूत्र-३५ । २ 'द्वयधिकादिगुणानातु' तत्त्वार्थसूत्र : अध्याय-४, सूत्र-३६ २ न जघन्यगुणानाम् ॥३४॥