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________________ [ गोम्मटसार जीव का गाया ६०१ ६८८ ] वर्गणा सो होइ वा न होइ, जो होइ तौ एक वा दोय वा तीन वा उत्कृष्ट छह होड । असें अनंतवर्गणा पर्यंत उत्कृष्ट छह ही होइ । बहुरि इस ही अनुक्रम ते अनंत अनत वर्गणा पर्यंत उत्कृष्ट सात, आठ, सात, छह, पाच, च्यारि, तीन, दोय वर्गणा जगत विपं समान परमाणूनि का प्रमाण लीएं हो है । यह यवमध्य प्ररूपणा है, जैसे यव नामा अन्न का मध्य मोटा हो है, तंस इहां मध्य विषे वर्गणा आठ कहीं । पहिले वा पीछे थोड़ी थोड़ी कही । तात याकौं यवमध्य प्ररूपणा कहिए है । सो यहु प्ररूपणा मुक्तिगामी भव्य जीवनि की अपेक्षा है । असे प्रत्येक वर्गणा समान संसारी जीवनि के न पाइए है। इहां तै प्रागै संसारी जीवनि के पाइए असी प्रत्येक वर्गणा कहिये है सो पूर्व कथन कीया, ताके अनंतरि पूर्व प्रत्येक वर्गणा ते एक परमाणू अधिकता लीएं, जो प्रत्येक वर्गणा सो जगत विष होइ, वा न होइ, जो होइ तौ एक वा दोय वा तीन इत्यादि उत्कृष्ट आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण होइ । जैसे ही अनन्तवर्गणा भए, अनंतरि जो प्रत्येक वर्गणा, सो लोक विषै होइ वा न होई,जो होइ तौ एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पूर्व प्रमाण ते एक अधिक होइ । असे अनंत अनंत वर्गणा भए, एक एक अधिक प्रमाण उत्कृष्ट विष होता जाय, जहां यवमध्य होइ, तहां ताईं जैसे जानना । यवमध्य विपै जेता परमाणू का स्कधरूप प्रत्येक वर्गणा भई, तितने तितने परमाणूनि का स्कंधरूप प्रत्येक वर्गणा जगत विष होइ वा न होइ, जो होइ, तो एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट प्रावली का असख्यातवां भाग प्रमाण होइ । यहु प्रमाण इस ते जो पूर्वप्रमाण तातै एक अधिक जानना । जैसे अनंत वर्गणा भएं, अनंतरि जो वर्गणा भई, सो जगत विष होइ वा न होइ, जो होइ तौ एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट प्रावली का असंख्यातवां भागप्रमाण होइ । सो यहु प्रमाण यवमध्य संबंधी पूर्वप्रमाण तै एक घाटि जानना । असै एक एक परमाणू के बंधने ते एक एक वर्गणा होइ । सो अनत अनंत वर्गणा भए उत्कृष्ट विष एक एक घटाइये जहां ताई उत्कृष्ट प्रत्येक वर्गणा होइ, तहां ताई असे करना । उत्कृष्ट प्रत्येकवर्गणा लोक विषै होइ वा न होइ, जो होइ तो एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण होइ । अस प्रत्येक वर्गणा भव्य सिद्ध, अभव्य सिद्धनि की अपेक्षा कही । बहुरि बादरनिगोद वर्गणा का भी कथन प्रत्येक वर्गणावत जानना, किछु विशेप नाही । जैसे प्रत्येक वर्गणा विर्षे अयोगी का अतसमय विष सभवती जघन्य वर्गणा, ताकौं आदि देकरि भव्य सिद्ध अपेक्षा कथन कीया है । तैसे इहां क्षीणकषायी का अंत समय विपै संभवती तिसका शरीर के आश्रित जघन्य बादरनिगोदवर्गणा ताको
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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