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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
संखेज्जासंखेज्जाणता वा होंति पोग्गलपदेसा । लोगागासेव ठिदी, एगपदेसो अणुस्स हवे || ५८६ ॥
संख्येया संख्येयानंता वा भवंति पुद्गलप्रदेशाः । लोकाकाशे एव, 'स्थितिरेक प्रदेशोऽणोर्भवेत् ॥ ५८६ ॥
टीका - दोय अणू का स्कंध तै लगाइ, पुद्गल स्कंध संख्यात, असख्यात, अनंत परमाणूरूप है । तथापि ते वे सर्व लोकाकाश ही विषै तिष्ठे हैं । जैसे संपूर्ण जल करि भर्चा हूवा पात्र विषै क्रम तै गेरे हुवे लवण, भस्मी, सूई आदि एक क्षेत्रावगाहरूप तिष्ठे हैं; तैसें जानना । बहुरि अविभागी परमाणू का क्षेत्र एक ही प्रदेशमात्र हो है -
लोगागासपदेसा, छद्दवहिं फुडा सदा होंति । सव्वमलोगागासं, अण्णेहिं विवज्जियं होदि ॥ ५८७॥
लोकाकाशप्रदेशाः, षड्द्रव्यैः स्फुटाः सदा भवंति । सर्व लोकाकाशमन्यैविवर्जितं भवति ॥ ५८७ ॥
टीका - लोकाकाश के प्रदेश सर्व ही षट्द्रव्यनि करि सदाकाल प्रगट व्याप्त हैं । बहुरि अलोकाकाश सर्व ही अन्य द्रव्यनि करि रहित है । इति क्षेत्राधिकारः ।
जीवा प्रणतसंखाणंतगुणा पुग्गला हु तत्तो दु । धम्मतियं एक्क्कं लोगपदेसप्पमा कालो ॥ ५८८ ॥
जीवा अनंत संख्या, अनंतगुणाः पुद्गला हि ततस्तु । धर्मत्रिमेकैकं, लोकप्रदेशप्रमः कालः ॥५८८ ॥
टीका - संख्या कहैं हैं - तहां द्रव्य परिमाण करि जीव द्रव्य बहुरि तिनि ते अनंत गुणे पुद्गल के परमाणू हैं । बहुरि धर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य एक-एक ही है, जाते ए तीनो प्रखंड द्रव्य है । बहुरि जेते के प्रदेश है, तितने कालागू है
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लोगागासपदेसे, एक्क्के जे ठिया हु एक्केक्का । रयणाणं रासी इव, ते कालाणू मुणेयव्वा' ॥५८६ ॥
१ - द्रव्यसंग्रह गाथा सं २२
अनंत है ।
अधर्म द्रव्य, लोकाकाश