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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५८१-५८२ करि ऊत्पाद व्यय को धरै है । तात उत्पन्न-प्रध्वंसी कहिए है । बहुरि व्यवहार काल है, सो वर्तमान काल अपेक्षा उत्पाद - व्यय रूप है । तातै उत्पन्न-प्रध्वंसी है । बहुरि अतीत, अनागत, अपेक्षा बहुत काल स्थिति कौं धरै है । तातै दीतिर स्थायी है। इहां प्रासागिक श्लोक कहिये है
निमित्तमांतरं तत्र, योग्यता वस्तुनि स्थिता ।
बहिनिश्चयकालस्तु, निश्चितं तत्वशिभिः ॥ तीहिं वस्तु विष तिष्ठती परिणमनरूप जो योग्यता, सो अंतरंग निमित्त है । बहुरि तिस परिणमन का निश्चय काल बाह्य निमित्त है । असै तत्त्वदर्शीनि करि निश्चय कीया है । इत्युपलक्षणानुवादाधिकारः ।
छहव्वावट्ठाणं, सरिसं तियकालअत्थपज्जाये। वेंजणपज्जाये वा, मिलिदे ताणं ठिदित्तादो ॥५८१॥
षड्द्रव्यावस्थानं, सदृशं त्रिकालार्थपर्याये ।
व्यंजनपर्याये वा, मिलिते तेषां स्थितित्वात् ॥५८१॥ टीका - अवस्थान नाम स्थिति का है; सो षट् द्रव्यनि का अवस्थान समान है । काहे ते ? सो कहिए है - सूक्ष्म वचन अगोचर क्षणस्थायी असे तौ अर्थपर्याय अर स्थूल, वचन गोचर चिरस्थायी जैसे व्यंजन पर्याय, सो त्रिकाल संबंधी अर्थ पर्याय वा व्यंजन पर्याय मिले, तिनि सर्व ही द्रव्यनि की स्थिति हो है । तातै सर्व द्रव्यनि का अवस्थान समान कह्या । सर्व द्रव्य अनादिनिधन है।
आगे इस ही अर्थ को दृढ करै हैएय-दवियम्मि जे, अत्थ-पज्जया वियण-पज्जया चा वि । तीदाणागद-भूदा, तावदियं तं हवदि दवं ॥५८२॥
एकद्रव्ये ये, अर्थपर्याया व्यंजनपर्यायाश्चापि । अतीतानागतभूताः तावत्तद् भवति द्रव्यम् ॥५८२॥
पट्सडागम-ववला पुस्तक १, पृष्ठ ३८८ गाथा सं० १६६