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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ।
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आवली का असख्यातवा भाग प्रमाण पुद गल परावर्तन मात्र 'शुक्ललेश्या का उत्कृष्ट अंतर जानना । इति अंतराधिकारः।
प्रागै भाव अर अल्पबहुत्व अधिकारनि को कहैं हैंभावादो छल्ले स्सा, प्रोदयिया होंति अप्पबहुगं तु । दन्वपमाणे सिद्ध, इदि लेस्सा वण्णिदा होति ॥५५॥
भावतः षड् लेश्या,. औदयिका भवंति अल्पबहुकं तु ।
द्रव्यप्रमाणे सिद्धमिति, लेश्या वरिणता भवंति ॥५५५।। टोका - भाव करि छहौ लेश्या औदयिक भावरूप जाननी; जाते कषाय संयुक्त योगनि की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है । सो ते दोऊ कर्मनि के उदय ते हो है। इति भावाधिकारः।
बहुरि तिनि लेश्यानि का अल्प बहुत्व पूर्व संख्या अधिकार विष द्रव्य प्रमाण करि ही सिद्ध है । जिनका प्रमाण थोडा सो अल्प, जिनिका प्रमाण घणा सो बहुत । तहां सबतें थोरे शुक्लेश्यावाले जीव है; ते परिण असंख्यात है । तिनि ते असख्यातगुणे पद्मलेश्यावाले जीव है। तिनि त संख्यातगुणे तेजोलेश्यावाले जीव है । तिनि ते अनंतानंत गुणे कपोतलेश्यावाले जीव है । तिनि ते किछ अधिक नीललेश्यावाले जीव है । तिनि ते किछु कृष्णलेश्यावाले जीव है । इति अल्पबहुत्वाधिकार. । : असे छहौ लेश्या सोलह अधिकारनि करि वर्णन करी हुई जाननी ।
प्रागै लेश्या रहित जीवनि को कहैं है'किण्हादिलेस्सरहिया, संसारविणग्गया अणंतसुहा ।
सिद्धिपुरं संपत्ता, अलेस्सिया ते मुणेयन्वा ॥५५६॥ । कृष्णादिलेश्यारहिताः, संसारविनिर्गता अनन्तसुखाः ।
सिद्धिपुरं संप्राप्ता, अलेश्यास्ते ज्ञातव्याः ।।५५६।।
टीका - जे जीव कषायनि के उदय स्थान लिए योगनि की प्रवृत्ति के प्रभाव तै कृष्णादि लेश्यानि करि रहित है, तिस ही ते पच प्रकार संसार समुद्र ते निफसि