________________
६२८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५४६-५४७ गुण्या हुवा जगत्प्रतर प्रमाण भया, सोई विहारवत्स्वस्थान विषै स्पर्श जानना । जातें कृष्णलेश्यावाले गमन क्रिया युक्त त्रस जीव तिर्यग् लोक ही विषै पाइए है ।
बहुरि वैक्रियिक समुद्घात विषै मेरुगिरि के मूल तें लगाइ, सहस्रार नामा स्वर्गं पर्यंत ऊंचा त्रसनाली प्रमाणं लंबा, चौडा क्षेत्र विषै पवन कायरूप पुद्गल सर्वत्र प्राच्छादित रूप भरि रहे हैं । बहुरि पवन कायिक जीवकि कै विक्रिया पाइए है, सो अतीत काल अपेक्षा तहां सर्वत्र विक्रिया का सद्भाव है । असा कोऊ क्षेत्र तिस विषै रह्या नाहीं, जहां विक्रिया रूप न प्रवर्ते; तातै एक राजू लंबा वा चौडा र पाच राजू ऊंचा क्षेत्र भया ताका क्षेत्रफल लोक के संख्यातवे भाग प्रमाण भया, सोई वैक्रियक समुद्घात विषै स्पर्श जानना ।
बहुरि तैजस अर आहारक पर केवल समुद्घात इस लेश्या विषै होता ही नाही । इहां भी पच प्रकार लोक का स्थापन करि, यथासंभव गुणकार भागहार जानना । बहुरि जैसे कृष्णलेश्यानि विषै कथन कीया, तैसे ही नीललेश्या कपोतलेश्या विषे भी कथब जानना ।
आगे तेजोलेश्या विषै कहै हैं
तेजस्स य सट्ठाणे, लोगस्स प्रसंखभागमेत्तं तु । अडचो सभागा वा, देसूणा होंति नियमेण ॥ ५४६॥
तैजसश्च स्वस्थाने, लोकस्य असंख्यभागमात्रं तु ।
अष्ट चतुर्दशभागा वा, देशोना भवंति नियमेन ॥ ५४६ ||
टीका - तेजोलेश्या का स्वस्थान विषै स्पर्श स्वस्थान स्वस्थान अपेक्षा तौ लोक का असंख्यातवां भागमात्र जानना । बहुरि विहारवत्स्वस्थान अपेक्षा त्रसनाली के चौदह भागनि विषे आठ भाग किछु घाटि प्रमाण स्पर्श जानना ।
एवं तु समुग्धादे, रणव चोहसभागयं च किंचूण | उववादे पढमपदं, दिवड्ढचोहस य किंचूर्ण ॥५४७॥
एवं तु समुद्घाते, नवचतुर्दशभागश्च किचिदूनः । उपपादे प्रथमपदं व्यर्धचतुर्दश च किचिदूनम् ॥५४७॥