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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] [ ६२३ द्रवासी देवनि करि कीया मारणांतिक दंड का घनरूप क्षेत्रफल प्रतरांगुल का सख्याaai भाग करि तीन राजू को गुणे जो प्रमाण होइ, तितना है। इसकरि दूर माररणांतिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण कया था, ताकौ गुणिए, तब मारणातिक समुद्घात विषै क्षत्र का प्रमाण होइ, बहुरि उपपाद विषै तिर्यंच जीवनि करि कीया सनत्कुमार महेंद्र प्रति उपपाद रूप दंड, सो तीन राजू लंबा, संख्यात सूच्यगुल प्रमाण चौडा वा ऊंचा है । ताका क्षेत्र फल संख्यात प्रतरांगुल करि गुण्या हूवा तीन राजू प्रमाण एक जीव अपेक्षा क्षेत्र हो है । इसकरि उपपाद वालो के प्रमाण कौ गुणे, उपपाद विषे क्षेत्र का प्रमाण हो है । बहुरि तैजस अरु आहारक समुद्घात विष क्षेत्र जैसे तेजोलेश्या के कथन विषै कया है, तैसे इहां भी सख्यात घनागुल करि सख्यात जीवनि को गुणै, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । बहुरि केवल समुद्घात इस लेश्या विष होता ही नाहीं; असे पद्मलेश्या का क्षेत्र कह्या । आगे शुक्ललेश्या विषे क्षेत्र कहिए है । संख्या अधिकार विषै जो शुक्ललेश्यावालों का प्रमाण कह्या, ताकौ पल्य का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण स्वस्थान स्वस्थान विष जीव है । अवशेष एक भाग रह्या, ताक पल्य का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिए हां बहुभाग प्रमाण विहारवत्स्वस्थान विषे जीव हैं । श्रवशेष एक भाग रह्या, ताकौ पल्य का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमाण वेदनासमुद्घात विषे जीव है । अवशेष एक भाग रह्या, ताकौ पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमाण कषाय समुद्धात विषै जीव है । अवशेष एक भाग रह्या, तिस प्रमाण वैक्रियिक समुद्धात विषै जीव है । तहा शुक्ललेश्यावाले देवनि की मुख्यता कर एक जीव का शरीर की अवगाहना तीन हाथ ऊची इसके दशवे भाग मुख की चौडाई याका वासोत्ति गुणो परिही इत्यादि सूत्र करि क्षेत्रफल कीजिए, तब संख्यात घनागुल प्रमाण होइ, इसकरि स्वस्थान स्वस्थानवाले जीवनि का प्रमाण की गुरिए, तब स्वस्थान स्वस्थान विषे क्षेत्र का परिमाण होइ । बहुरि मूल शरीर की अवगाहना ते साढा च्यारि गुणा एक जीव के वेदना अर कषाय समुद्घात विषं क्षेत्र है । इस साढा च्यारि गुणा घनागुल का सख्यातवा भाग करि वेदना समुद्घातवाले traft का प्रमाण को गुणिये, तब वेदना समुद्घात विषै क्षेत्र हो है । पर कपाय समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण को गुणै कपायसमुद्घा विषे क्षेत्र हो है । बहुरि एक देव के विहार करते अपने मूल शरीर ते वाह्य निकसि उत्तर विक्रिया करि
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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