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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
। ६०६ त्रयाणां द्वयोयो , षण्णां द्वयोश्च त्रयोदशानां च ।। एतस्माच्च चतुर्दशानां, लेश्या भवनादिदेवानाम् ॥५३४॥ तेजस्तेजस्तेजः पद्मा पद्मा' च पद्मशुक्ले च ।
शुक्ला च परमशुक्ला, भवनत्रिकाः अपूर्णके अशुभाः ॥५३५॥ टीका - देवनि के लेश्या कहिए हैं - तहां पर्याप्त भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी इनि भवनत्रिक के तेजो लेश्या का जघन्य अंश है । सौधर्म - ईशान, दोय स्वर्गवालों के तेजो लेश्या का मध्यम अंश है । सनत्कुमार - माहेद्र स्वर्गवालों के तेजो लेश्या का उत्कृष्ट अंश अर पद्म लेश्या का जघन्य अंश है । ब्रह्म आदि छह स्वर्गवालों के पद्म लेश्या का मध्यम अंश है । शतार - सहस्रार दोय स्वर्गवालो के पद्म लेश्या का उत्कृष्ट अंश अर शुक्ल लेश्या का जघन्य अंश है । आनत आदि च्यारि स्वर्ग अर नव गैवेयक इनि तेरह वालों के शुक्ल लेश्या का मध्यम अंश है । ताके ऊपरि नव अनुदिश अर पंच अनुत्तर इनि चौदह विमान वालों के शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट अश है । बहुरि भवनत्रिक देवनि के अपर्याप्त अवस्था विषै कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या ही पाइए है । याही ते यह जानिए है, जो वैमानिक देवनि के पर्याप्त वा अपर्याप्त अवस्था विषै लेश्या समान ही है । औसै जिस जीव के जो लेश्या पाइए, सो जीव तिस लेश्या का स्वामी जानना । इति स्वाम्यधिकार. ।
आगे साधन अधिकार कहै हैवण्णोदय-संपादिद-सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । मोहुदय-खओवसमोवसम खयज-जीवफंदणं भावो ॥५३६॥
वर्णोदयसंपादित-शरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या।
मोहोदयक्षयोपशमोपशमक्षयजजीवस्पन्दो भावः ॥५३६॥ टीका - वर्ण नामा नामकर्म के उदय ते उत्पन्न भया जो शरीर का वर्ण, सो द्रव्य लेश्या है । तातें द्रव्य लेश्या का साधन नामा नामकर्म का उदय है । बहुरि असयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विष मोहनीय कर्म का उदय ते, देश विरतादिक तीन गुणस्थाननि विष मोहनीय कर्म का क्षयोपशम ते उपशम श्रेणी विपै मोहनीय कर्म का उपशम ते क्षपक श्रेणी- विष मोहनीय कर्म का क्षय ते उत्पन्न भया जो जीव का स्पंद, सो भाव लेश्या है । स्पंद कहिए जीव के परिणामनि का चचल होना वा